________________
केवल - ज्ञान - कल्याणक
भगवान महावीर विचरण करते हुए जृम्भिक ग्राम के बाहर ऋजु पालिका नदी के शान्त किनारो को अपने चरण-स्पर्श से पावन करते हुए श्यामक गाथापति के खेत मे पहुचे और वहा शालि वृक्ष के नीचे ध्यानस्थ हो गये ।
वैशाख का मधुर मास चल रहा था । शुक्लपक्ष अपने दसवें ग मे प्रवेश कर चुका था । उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र से चन्द्रमा का उत्तम योग था । सुव्रत नामक दिन का चतुर्थ प्रहर था । उस समय विजय मुहर्त्त भी भगवान महावीर की अपने मोह-कर्म पर पूर्ण विजय की घोषणा कर रहा था। भगवान अपने 'स्व' मे लीन गोदुहासन मे बैठे हुए थे । वे श्रानन्दाव्धि मे तैर रहे थे । कर्म, विक्षेप और आवरण सब हट चुके थे । केवल-ज्ञान स्वरूप एक ग्रात्मा का ही अस्तित्व रह गया ।
सर्वोच्च शिखर पर
उन्होने अपनी श्रात्मा को अनन्त प्रकाश के पुञ्ज के रूप मे अनुभव किया । चराचर जगत् को अपने ग्रनन्त 'स्व' के विमल दर्पण मे प्रतिविम्वित होते हुए देखा । साढे बारह वर्ष तक जीवन की अनेक विकट घाटियां पार करने के बाद महावीर केवल - ज्ञान के पहुच गये । केवल-ज्ञान होने के बाद जीव को अपने प्रकार से प्रमाण-पत्र ही उपलब्ध हो जाता है, क्योकि सिद्धत्व निश्चित होता है । घट के फूटने पर जैसे घटाकाश, मठाकाग मे समा जाता है, ऐसे ही पाञ्चभौतिक शरीर के छूटते ही जीव सिद्ध ज्योति मे जा कर ज्योति स्वरूप हो जाता है ।
कल्याण का एक केवल- ज्ञानी का
सामान्य केवली और तीर्थङ्कर केवल ज्ञान की दृष्टि से समान होते है, किन्तु सामान्य केवली के केवल ज्ञान को कल्याणक नही कहा जा
पञ्च-कल्याणक ]
[59