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फूट-फूट कर रोने लगा। कन्णामूर्ति भगवान महावीर ज्यो-ज्यो उमे सान्वना देते त्यो-त्यो उसका दिल और अधिक चीत्कार कर उठता। सहृदयता और सवेदना के अमर प्रतिनिधि भगवान महावीर मे यह दृश्य देखा नहीं गया । उन्होने अपना देवदूप्य फाडा और उसका प्राधा भाग ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण लोभी था, वह सारा देवदृष्य लेना चाहता था, लज्जा के मारे वह माग तो नहीं सका, परन्तु उसे, प्राप्त करने का प्रयास करने लगा। भगवान के विहार करने पर कुछ ही दूरी पर वह भगवान के पीछे-पीछे रहता था, समय की बात समझिए कि तेरह मास के बाद एक दिन वह अावा देवदूप्य कांटों में उलझ कर कही गिर पड़ा । अपनी मनोरथपूर्ति देखकर ब्राह्मण हर्ष के मारे फूला नहीं समाया ।
यह भी कहा जा सकता है कि महावीर इतने प्रात्म-अवस्थित हो गए थे कि उन्हे देह का भान ही न रह गया था, अत: देह से देवदूप्य गिर गया इसकी उन्हे प्रतीति भी न हुई होगी, क्योकि देवदूष्य का सम्बन्ध गरीर से था और महावीर उस शरीर से अलग रह कर साधना के अभ्यासी हो गए थे। उपसर्गों की छाया तले
विहार करते हुए भगवान महावीर सन्च्या समय एक मुहुर्त दिन शेष रहते कूर्मारग्राम मे पहुचे। योग्य स्थान देख कर प्रभु ध्यान में अवस्थित हो गए। दीक्षा के समय गोशीपचन्दन का शरीर पर जो लेप किया गया था, उसकी सुगन्धि का प्रभाव चार महीने से भी अधिक रहा था। यही कारण था कि भ्रमर आदि सुगन्धि-प्रिय कीट इनके गरीर पर तीक्ष्ण डक मारते थे, मांस नोचते थे, रक्त चूसते थे, परन्तु महावीर ने कभी उन्हे हटाया नही, न ही वे कभी व्यथित हुए। मेरु की -१ कल्पसून के मूल मे या किसी अन्य शास्त्र में इस कथानक का कोई उल्लेख
नहीं है । प्राचारागसूत्र तथा कल्पसूत्र मे १३ मास के बाद देवदूष्य के गिर जाने का उल्लेख मिलता है। तथापि आधा वस्त्र ब्राह्मण को देने का वहा पर कोई वर्णन नहीं है, परन्तु चूणि टीका मादि मे भगवान द्वारा आधा वस्त्र देने का उल्लेख अवश्य देखने मे आता है।
[दीक्षा कल्याणक