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भ्रमण का अन्त होता है। निस्सन्देह कर्मक्षय से ही दुःखक्षय होता है-दुःखक्षय से वेदनाक्षय होती है और वेदनाक्षय से सब दुखों की निर्जरा हो जाती है । जीव मुक्त होकर शुद्ध-बद्ध परमात्म रूप को पालेता है!"
भ० महावीर के कार्य-कारण सिद्धान्त पर निर्धारित उपदेश ने इन्द्रभूति और अन्य श्रोताओं को वस्तुतत्व समझने की क्षमता प्रदान की। उन्होंने समझ लिया कि सात तत्व, नव पदार्थ, पांच अस्तिकाय, छः द्रव्य, चार कपाय, आठ कर्म आदि क्या हैं। तब उन्हें श्रद्धा होगई कि यह जीव पद्गल से उसी तरह वेष्टित है-कर्म-कालिमा से उसी तरह कलङ्कित है जिस प्रकार मैल से मिला हुआ सोना कान से निकलता है। जिस प्रकार उस अशुद्ध सोने में सोने के गुण पूर्णतः प्रगट नहीं होते उसी प्रकार संसारी जीव अपनी अशुद्धावस्था में अपने स्वभावजन्य परमात्मगुणों को पूर्ण प्रगट नहीं कर पाता है। इस अशुद्धावस्था मे जीव (१) देव, (२) मनुष्य (३) नर्क और (४) तिर्यञ्च नामक गतियों में भ्रमण करता है और राग द्वेष परणति के कारण दुख उठाता है। यदि जीव राग द्वेष को जीत ले तो वह अपने शुद्धरूप को उसी तरह प्राप्त कर सकता है जिस तरह सोने को तपाने से उसके गुण चमकने लगते है। क्रोध मान, माया, लोभ-चार ऐसे कषाय हैं जिनके वश मे होकर जीव अपनी मन-वच-कायिक क्रियाओं के द्वारा अपने स्वाभाविक गुणों के ऊपर उत्तरोत्तर मैल चढ़ाता है। यह मैल कर्म का है, जो लोक मे भरा हुआ एक सूक्ष्म पद्गल है। तेल से भरे हुये शरीर पर जिस तरह रजकण आकर स्वत चिपट जाते हैं उसी तरह कमरज सकषाय जीव से आकर काल विशेष के लिये बंध जाता है
और उसे वेदित करता है। यह कमरज आठ प्रकृतियों मे मुख्यतः वंट जाता है, जैसे पेट में पहुँच कर भोजन रक्त-सज्जा-वीर्यादि