Book Title: Bhagavana Mahavira
Author(s): Jain Parishad Publishing House Delhi
Publisher: Jain Parishad Publishing House Delhi

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Page 317
________________ ( 267 ) उद्धार करने के लिए जन्मी थी। अतः उसे 'अद्ध मागधी' भाषा का रूप दिया गया, जिसे कि मगध प्रान्त के अतिरिक्त अन्य देशों और प्रान्तों के मनुष्य भी समझ सकें ! यह अर्द्धमागधी भाषा 'प्राकृत भाषा' का एक विशेष रूप है और जैन-आगम-ग्रंथ इसी भाषा में रचे हुये मिलते हैं। मालम ऐसा होता है कि उस समय इस भाषा को सारे भारतवर्ष के लोगों के अतिरिक्त भारतवाह्य विदेशों के लोग भी समझते थे / मौर्यकाल में सम्राट अशोक ने अपने धर्मलेख पालीप्राकृत में लिखाये थे और उन्हे विदेशों में भी प्रचलित किया था। जो हो, भ० महावीर की दिव्य-वाणी का प्रचार अर्द्धमागधी-प्राकृत में किया गया था, जिसे अधिकांश लोक समझता था। वह महावीर वाणी बारह अङ्ग ग्रंथों में रची गई थीबारहवां 'दृष्टिवाद' नामक अङ्ग चौदह 'पूर्वगत' भागों में विभक्त था / इसलिये 'महावीर-वाणी' ग्यारह अङ्ग और चौदह पूर्व संयुक्त कहलाती है। यह अङ्ग साहित्य है। इसके अतिरिक्त अङ्ग वाह्य प्रकीर्णक साहित्य इसी के आधार से रचा गया है। प्राचीनकाल मे ग्रंथों को स्मृति में सुरक्षित रखने की परिपाटी थी। लिपिका प्रचार था अवश्य, परंतु विनयभाव के बाहुल्य से उसका प्रयोग धर्मशास्त्रों को लिपिबद्ध करने में प्रार: नहीं होता था। इसी अनुरूप जैन आगम ग्रंथ भी ऋषि पङ्गवों की पवित्र स्मृति मे सुरक्षित रहे / महावीर-वाणी के पूर्ण ज्ञाता'श्रुतकेवली' मौर्यकाल तक जीवित रहे-भद्रवाह स्वामी अन्तिम श्रुतकेवली थे ! उपरान्त ऋषियों की स्मृति ज्यों ज्यों क्षीण होती गई त्योंत्यों आगम-ग्रंथ भी लप्त होते गये ! आज महावीर• वाणी का बचा हुआ शतांश ही मिलता है / वह शेषांश 'गागर में सागर भर देने' की उक्ति चरितार्थ कर रहा है। वही हमे महावीर स्वामी के दिव्योपदेश का भान कराता है / उनके

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