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आवरण कर लेते थे और वह खंड वर सदा ही अपने पास रखते थे-वे पाणि पात्री भी नहीं रहे थे-उन्होंने भोजन पात्र भी ले लिये थे। भ० महावीर की प्राचीन कठोर तपश्चर्या के समक्ष यह शिथिलाचार था और यह धीरे धीरे ही बढ़ सकता था। यह लोग उस समय 'अर्द्ध फालक' निर्ग्रन्थ कहलाते थे। श्री हरिपेणाचार्य जी ने इनका उल्लेख अपने 'कथाकोष में किया है । उधर मथुरा के कंकालीटीला से ऐसे कितने ही आयाग पट प्राप्त हुई हैं, जिनमें साधुजन हाथ पर खंड वख लटकाये हुये उत्कीर्ण किये गये हैं वैसे वे नग्न हैं। इनमें एक का नाम 'कण्ह श्रमण' अङ्कित है, जो श्वेताम्बरीय परम्परा में एक मान्य आचार्य हुये हैं।
इस प्रकार मोर्यकाल से जैनसंघमें 'अर्द्ध फालक' नाम से कतिपय निर्मन्य श्रमण प्रसिद्ध हो गये थे, जो यद्यपि रहते तो नग्न थे, परन्तु नन्नता को छिपाने के लिए वस्त्र रखते थे। उन्होंने
1. जैन स्तुप एस्द भदर ऐन्टीकटोज भाव मथरा, प्लेट नं. १०।
भाज का यह पट वसनऊ के प्रान्तीय संग्रहालय में है। संग्रहा. नयके भूतपूर्व अध्यक्ष श्री रा. वासुदेवशरणजी मप्रवाल ने इसके विषप में लिखा था कि 'पके ऊपरीमाग में स्वपके दो मोर पार तीर्थकर हैं, जिनमें तीसरे पार्वनाय (सपंफणानकृत ) और चौथे सम्भवत म. महावीर हैं। पहले दो पमनाय और नेमिनाय हो सकते हैं। पर तोहर मूर्तियों पर कोई चिन्ह नहीं है। मौर न वन ! पट्ट में नीचे एक सी और उसके सामने एक नग्न प्रमण है जिसका नाम कयह घमण खुदा हुमा है। यह एक हाय में मन्मार्जनी और गएं हाथ में एक कपदा ( लंगोट १) बिए हुए है। शेप गरीर भग्न है।" ( पत्र नं. १२ ता. १ ३ )