Book Title: Bhagavana Mahavira
Author(s): Jain Parishad Publishing House Delhi
Publisher: Jain Parishad Publishing House Delhi

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Page 354
________________ ( ३३४ ) मानवोचित सम्मान कराया था, परन्तु उन्होंने वर्ण व्यवस्था का लोप नहीं किया था। हॉ, उच्चता-नीचता का माप एकमात्र जन्म और कुल को नहीं माना था, बल्कि कर्म के आधीन मानवी जीवन की उच्चता-नीचता नियत की थी । कर्म से ब्राह्मण होता है और कर्म से ही शूद्र इसलिये अपने कर्म अच्छे रक्खो -- अच्छे वनकर चमको और योग्य वनो। योग्य व्यक्ति ही सम्मान और उच्चपद पाता है। पाठक पूर्व-पृष्ठों में पढ़ चुके हैं कि तत्कालीन भारत के सत्र ही राना जिनेन्द्र महावीर के संघमें सम्मिलित हुये थे । सम्राट श्रेणिक विम्बसार, अजातशत्र, उदयन, शतानीक, प्रसेननित प्रभृति जैनधर्म के भक्त थे और अपनी प्रजा को धर्म-साधन की सुविधा दिये हुये थे । वैशाली-(विदेह ) में उस समय असंख्य जैनी थे। अपितु, भारतके पश्चिमोत्तर सीमाप्रान्त पर अवस्थित विदेशी यूनानियों मे भी भ० महावीर के भक्तों का अभाव नहीं था। वौद्धग्रंथ 'मिलिन्द परह' मे लिखा है कि पांच सौ चनानियों ने अपने राजा मिलिन्द ( Menander ) से निग्रेन्य ज्ञातपुत्र महावीर के पास चलकर अपने मन्तव्यों को उन पर प्रगट करने और शङ्खाओं का समाधान करने के लिये कहा था। यद्यपि यह उल्लेख ई० पूर्व द्वितीय शताब्दि से सम्बन्धित है, परन्तु इससे प्रगट है कि जैन धर्म का प्रचार यूनानियों में बहुत पहले से हो गया था। भ० महावीर के समय के लगभग यूनान देशके प्रसिद्ध तत्ववेता पिथागोरस और परहो (Pyrrho) भारत भाये थे उन्होंने संभवतः जैन साधुओं से आध्यात्मिक शिक्षा भी ग्रहण की थी। इन तत्ववेताओं ने यूनान में अहिंसा और ऐसे सिद्धान्त प्रचलित किये थे जो $. Historical Gleanings, p. 78.

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