Book Title: Bhagavana Mahavira
Author(s): Jain Parishad Publishing House Delhi
Publisher: Jain Parishad Publishing House Delhi

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Page 360
________________ ( ३४० दीक्षित करके उनके यहाँ आहार लेते थे। अतः आचार नियमों की कट्टरता के कारण यह मानना ठीक नहीं है कि जैन मुनि दूरदूर विदेशों में विहार करने नहीं जाते थे। उपलब्ध पुरातत्व की शोध जैनदृष्टि से हुई ही नहीं हैउसपर, जैन एवं नौद्ध मूर्तियों के सूक्ष्मभेद को समझने वाले भी पहले प्रायः नहीं थे ! भारत में ही अनेक जैनकृतियां बौद्ध बता दी गई थीं । ऐसी दशा मे निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि भारत के बाहर कोई जैन चिन्ह हैं ही नहीं। साहित्यिक उल्लेखों से तो भारत वाह्य देशों में जैनधर्म का अस्तित्व प्राचीन काल से सिद्ध है। सम्राट् श्रेणिक विम्बसार के पुत्र अभयकुमार ने ईरान देश के एक रानकुमार को जैनधर्म में दीक्षित किया था-इस उल्लेख से प्रगट है कि ईरान के लोग उस समय ही जैनधर्म के परिचय में आगये थे। मौर्य काल में सिकन्दर महान् को अनेक दिगम्बर साधु पश्चिमोत्तर प्रान्त की सीमा पर मिले थे और उनमें से एक नग्न साधु (Gymnosophis ) उनके साथ यूनान की ओर गये भी थे।२ इन साधुओं में जैनमुनियों का अभाव नहीं था।३ सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य स्वयं श्रुतकेवली भद्रबाहु जी के शिष्य थे और उन्होंने धर्मप्रचार का प्रयत्न किया था। अशोक उनके विषय में लिखता है कि वह १. हिस्ट्री मॉ जैन वाइन्नोग्रफी, पृ. १२ । ___२. 'वीर' मा० पृ० ३४१-३४३ (M. Crindle, Ancient India, p.73 ) १. "जिम्नोसोफिस्ट' दि. जैम मुनि पे, यह बात 'इन्साइक्लोपेडिया प्रिटेमिका (, वी. आवृत्ति) भा० ११ १. १२८ में मिली है।

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