Book Title: Bhagavana Mahavira
Author(s): Jain Parishad Publishing House Delhi
Publisher: Jain Parishad Publishing House Delhi

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Page 338
________________ ( ३१८ ) हुआ है, जो जीव का वैभाविक स्वभाव कहा जा सकता है ! शुद्ध पद्गलमे अहकारादि दोष नहीं मिलते। इसलिये अशुद्ध जीव कर्ता और फल का भोक्ता है। वह आनन्दरूप है, यह मानव का दैनिक अनुभव बताता है। पातञ्जलि-मान्य सांख्य सेश्वरवादी है। वह ईश्वर को क्लेश, कर्म, विपाक, आशय से अस्पृष्ट मानते है और कहते हैं कि ईश्वर स्वेच्छा से निर्मित शरीर में अधिष्टान करके लौकिक और वैदिक सम्प्रदाय की वर्तना करता है एवं संसार रूप अङ्गार से तप्तायमान प्राणीगण के प्रति अनुग्रह वितरण करता है। आत्मा को यह भी अपरिणामी मानते हैं । किन्तु जो शुद्ध रूप ईश्वर आशय रहित है उसमें शरीर धारकर कृपा करने का भाव नहीं हो सकता है। शरीर तो अशुद्ध जीव अनादि से धारण करता आया है और वह स्वयं ही सुख दुख भोगता, कर्म करता और कर्म से मुक्त भी होता है । हॉ, शुद्ध निश्चय ष्टि से वह शुद्ध-बुद्ध परम ब्रह्म ही है। नैयायिक और वैशेषिक-यह दोनों दर्शन प्राय. एक समान हैं । उनकी मान्यता है कि यह नन्तु अज्ञानी है । इनका सुखदुख स्वाधीनता रहित है-वे ईश्वर की प्रेरणा से स्वर्ग या नर्क में नाते हैं । मुक्तिप्राप्त जीव व विद्या के ईश्वर शिवरूप हैं, तथापि परमेश्वर के वश हैं-वे स्वतन्त्र नहीं हैं।र जगत जीवों का १. 'परमेश्वरः क्लेश कर्म विपाकाशयरपरामृष्ठः पुरुषः स्वेच्छया निर्माण कायमधिकाय लौकिक वैदिक सम्प्रदाय प्रवर्तकः संसारां२. अज्ञो जन्तुर नीशोऽपमात्मनः सुख दुःखयोः । ईश्वरः प्रेरितो गच्छेत् स्वर्गे वा श्वनमेव वा ॥६॥ मुकास्मानां विद्यश्वरादीनाञ्च वयपि शिव स्वमस्ति तथापि परमेश्वर पारतन्ध्यात्वातंत्र्यं नास्ति। -सर्वदर्शन संग्रह, पृ० १३४-१३५

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