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( रहह )
प्राणी के शरीर मन्दिर मे दिव्य ज्ञानमयी आत्मदेव विराजमान है । अतएव प्रत्येक प्राणी को अपने समान जानो और किसी को भी पीड़ा न पहुँचाओ । न उन्हे मारो और न पराधीन चनाओ ।"
"ज्ञानी धर्मात्मा यह भी जानता और मानता है कि प्रत्येक जीव स्वभाव से परमात्मा रूप है । उसमें अनन्त दर्शन, अनन्त ज्ञान, अनन्त वीर्य और अनन्त सुख रूप गुण अव्यक्त हैं । उनका प्रांशिक विकास छदमस्थों में प्रत्यक्ष दीखता है; जिससे उनका पूर्णत्व प्रमाणित है ।"
" जैसे यह जीव कर्म करता है, वैसे ही फल भोगता है और अपने कर्मों के अनुसार ही देव, मनुष्य, तिर्यञ्च और नर्कगतियों में सुख-दुख भुगतता है ।"
"यह याद रखिये कि प्रत्येक जीव स्वयं अपने जीवन का निर्माता है - वह अपने इस एवं भावी जीवन को जैसा चाहे वैसा बना सकता है | वह स्वभाव से स्वाधीन हैं ।"
"जब यह संसारी जीव रत्नत्रय धर्म की आराधना करके अपने को कर्म बन्धन से छुड़ा लेता है तब उसे ज्ञान - चेतनाजनित परमात्मभाव (निज भाव ) नसीब होता है । वह मुक्त होता है ।"
"सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र हो रत्नत्रयधर्म है और यही मोक्ष मार्ग है। स्वाधीन बनने का यही रास्ता है ।" "आदिमा सम्यग्दर्शन की आधारशिला, सम्यग्ज्ञान का पूरक नियम पर सम्परपारिया प्राय है।"
"जो सुपरी होना चाहते है, उन्हें इन्द्रियों का निग्रह करना चाहिये। जीवन की आवस्यकताओं को नीमित बना कर परिमाले चाहिये । संगोपी महामुखी
क्षेत्र है"