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हैं। उनसे मनुष्य आतिथ्य वर्म का निर्वाह करके अपना और सब का भला कर सकता है । इस प्रकार जहां अहिंसा का साम्राज्य होगा वहा शाति और समता का आधिपत्य होगा-सत्य नंगी तलवार लिए घमता होगा ! सत्य परायण क्षमाशील अहिंसक नागरिकों को वन-जन की रक्षा करने की फिक्र कभी न सतायेगी। वृजिगणतन्त्र की प्रजा सत्य और अहिंसा की पुजारी है। क्या उसके प्राण और सम्पत्ति सुरक्षित नहीं हैं !" सिंह ने कहा "वृजि एक आदर्श लोक नन्त्र राज्य है, परन्तु लोक मे वैसा राज्य सर्वत्र
और सर्वदा नहीं हो सकता । राष्ट्र की रक्षा और राज नियमो का समुचित पालन-शासन संचालन कराना मुझ से क्षत्रिय का परम धर्म है। तो क्या स्वधर्म, स्वराष्ट्र और स्वजाति की रक्षा के लिये युद्ध लड़ना और अपराधियों को दण्ड देना अहिंसा वर्म के विरुद्ध है ?" सिंह ने सुना कि 'तात्विक दृष्टि से कोई भी अहिंसक निरपराध रक्त नहीं बहायेगा । नाशवान् सम्पत्ति के झठे मोह के लिये पर प्राणियों के अमूल्य प्राणों का अपहरण करना कहाँका न्याय है ? सन्तोष ही बडी सम्पत्ति है। असन्तोषी कभी सम्पत्तिशाली नहीं होता । जो परिग्रह की तृष्णा मे जल रहा है, उसे सुख कहाँ है ? धर्मनीति यही कहेगी और यही स्वर्ण नीति है । मनुप्य अर्थ और काम पुरुषार्थों की सिद्वि धर्म पुस्पार्थ के बल पर ही कर सकता है। इसलिये ही राजनीति और समाजनीति की व्यवस्था और पवित्रता के लिये मनुष्य को लौकिक मर्यादा का निर्माण अहिंसाधर्म के अनुरूप करना उचित है । यद्यपि लौनिक वर्म देश भेद और कालभेद के आधीन है, परन्तु उसका प्राणतत्व अहिंसा ही है। उसके बिना वह निर्दीप और स्थायी नही हो सकता। वह ग्राम वर्म, नगरधर्म, राष्ट्रधर्म, पाखण्डवर्म, कुलधर्म, गणधर्म और सपवर्म ल्प है। ग्राम में रहने वाले प्रत्येक व्यक्ति को अहिंसा के आधार से ग्रामोन्नति के नियम