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( २८ ) नृत्य कर रही थी । ग्राज सृष्टि के आदि मे नई परम्परा ने जन्म लिया था । वैवाहिक सम्बन्ध की स्थापना की गई थी । श्रत इस नवीनतम एव सर्व प्रथम प्रायोजन का स्वागत स्वर्ग के देव भो कर रहे थे । आज देवो ने इस ग्राहस्थ्य परम्परा की श्रादि के प्रवत्तक भगवान वृषभ का नाम 'आदि नाथ' रखा
आदिनाथ अपनी दोनो पत्नियो-- जिनका नाम यशस्वती एव सुनन्दा था - के साथ अपना ग्राहस्थ जीवन का आज प्रारम्भ कर रहे थे । स्वभाव से मधुर एव योवन सम्पन्न दोनो पत्नियाँ आदिनाथ को भोग्य प्रसाधनो से सन्तुष्ट कर रही थी ।
शयन कक्ष, अत्यन्त सजा हुआ, और कर्पूरादिक सुगन्धि से भरपूर, प्राकृतिक प्रकाश, स्वच्छ पवन का सचार, एव अन्यन्य प्रसाधनो से सम्पन्न | जिसमे कोमल पुष्प शैया पर रानी यशस्वती अपने परमेश्वर यादिनाथ से साथ शयन कर रही थी । एक दूसरे कर स्पर्श श्राज मानसिक शारीरिक और भौग्यिक आनन्द प्रकट कर रहा था। दोनो ही मोज की लहरो में तैर रहे थे। एक दूसरे मे लीन थे ।
रात्री का पूर्वार्ध समाप्त हुआ । उत्तरावं प्रारंम्भ हुआ । प्रभाग का विसर्जन होने के पश्चात रात्री ने अपने अन्तिम प्रहर मे कदम रखा। रानी यशस्वती मीठी, मीठो नीद मे अपलक पलक खोले मुस्करा रही थी । श्रानन्द सागर मे डूबी रानी मन्ती से मौज भर रही थी ।
स्वप्नों की दुनिया में रानी का मन पहुँचा । उसने विशाल पृथ्वी देखी । पृथ्वी पर विशाल सुमेरू पर्वत देखा और सुमेरू पर्वत के समीप प्रभा सहित सूर्य और चन्द्रमा देखे । उसका मन और आगे वढा, एक सुन्दर तालाब, जिसमे इस किलोले कर रहे थे और जिसमे स्वच्छ शीतल जल लबालब भरा था — उसे देखा । तब ही मन और आगे बढा तो मन ने देखा कि समुद्र, जिसमे चचल