Book Title: Bhagavana Adinath
Author(s): Vasant Jain Shastri
Publisher: Anil Pocket Books

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Page 187
________________ 'धन्यवाद । तो अब आपको विश्वास मिल गया।' 'क्या मतलब ? ? ?' मेरे मित्र । जिस तरह तुम्हे तलबार का ध्यान रहा'""वैसे ही मुझे भी सदैव मौत का ध्यान रहता है। क्यो रघू , पचू इस वैभव मे ? मौत का क्या कोई समय है? अर्यात क्या मालूम कब आजाऐ।" क्यो रच पच कर समय व्यर्थ किया जाय। 'परे? ।। " देव चौक उठा।' 'चौको नही मित्र । सत्यता यही है। जीवन की क्षरण भगुरता का ध्यान रखकर प्राणी को सदैव सन्तोष धारण करके रहना चाहिये यह ठाठ बाठ तो मात्र पुण्य की महिमा है जो कभी नष्ट हो सकते है। 'मैं "मैं " हार गया। 'हार गए ? कैसी हार " 'मैं समझता रहा था कि ग्राप इतने वैभव मे, ठाठबाट मे रचपच कर इससे निलिप्त नहीं रह सकते । और इसीलिए आपकी परीक्षा लेने का मैने दुस्साहस ठान लिया।' 'मेरे मित्र । तुम ठहरे देव । देव सदर स्वर्गीय वैभव मे रचपच कर अपनापन भी भूल जाता है - वह वियर वासना का वास होता है । पर मानव । मानव एक ऐना प्राणी होता है जो अपना आत्म कल्याण कर नकने के सभी माय कर सकता है। यदि मानव चाहे तो विषय बालना के ठोकर मार सकता है । भारम्भ परिग्रह त्याा सकता है। • प्रान्त वातावरा से निकल कर शान्ति के पथ पर लग सकता है । यात्मा ने परमात्मा बन सकता है । किन्तु उने अपनी दृष्टि, अपने विचार नुवारते होगे । उने अपने हृदय से -~-तृष्णा निकालनी होगी।

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