Book Title: Bhagavana Adinath
Author(s): Vasant Jain Shastri
Publisher: Anil Pocket Books

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Page 192
________________ ( १६० ) भगवान आदिनाथ मौन थे। मौन थे । और अपने ही प्राप मे लीन थे। अाज पवन मन्द और उर्धगति से चल रही थी। ___ आकाश-घरा पर विमान आ जा रहे थे। पुष्प वृष्टि हो रही थी। वायुमण्डल सुगन्धि से सुरभित हो उठा था। अष्ट कर्म की वेडियो मे से ४ कर्म की वेडिया तो केवल ज्ञान प्राप्त करके पूर्व ही काट चुके थे, अवशेष कड़ियो का ग्राज निर्मूल हुना जा रहा था। तभी गगन-मगन होकर नाच उठा। मधुर और विजय भरे वाद्य बज उठे। भगवान आदिनाथ की मगलदायक देह देखते-देखते ही कपूर की भाति उड़ गई । मात्र सिरकेश और नाखून शेष रहे । जिन्हे देवगण मगल कलश मे एकत्रित कर रहे थे। श्रात्मा? भगवान आदिनाथ की आत्मा पूर्ण परमात्मा बन चुकी थी। अर्थात् परमात्मा बन चुकी थी । अर्थात् सिद्ध पद पर जा विराजमान हुई थी। जन्म मरण के चक्कर से परे, मनन्त ससार से सूदूर और अपने ही आप मे लीन, ज्ञानानन्द मे रत–परमपद प्राप्त कर चुकी थी। भगवान आदिनाथ का निर्वाण महोत्सव नर, सुर प्रादि ने मनाया। भरत जो दीक्षित हो चुके थे-माज परम वैराग्य के रग मे रंगे जीवन को वास्तविकता को पहचान गए थे । भगवान आदिनाथ ने गृहत्य से सन्यास और सन्यास से निर्वाण प्राप्त करने की परम्परा को जन्म दिया। मानव का कर्तव्य-मानव-प्रसिद्ध महामानव-त्रादिनाय ने सरलता से प्रदर्शित किया । आपके जीवन के अनुसार प्रत्येक मानव को अपना जीवन सफल बनाने के लिए परम्परा को ध्यान म रयकर जीवन का सदउपयोग करना चाहिए। यथा---

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