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तो वे चतुर्मुखी ब्रह्मा कहलाए ।
भगवान् आदिनाथ ने अपनी दिव्य ध्वनि मे मानव को मानवोचित कर्त्तव्य का उपदेश दिया । प्राणी मात्र के प्रति दया, प्रेम, वात्सालय का उपदेश दिया। साथ हो ससार की असारता, विनश्वरता, और परिवर्तनो का विश्लेषण भी किया ।
( ७८ )
अपनी दिव्य ध्वनि के मंगल प्रसारणो मे भगवान आदिनाथ ने कहा---
यह संसार
- भयकर भी है,
Holype
-- भुल भुलैया भी है,
और
विकट भी है।
"
मोह, माया, मिथ्यात्व के रंग में रंगा प्रारणी अपनी आत्मशक्ति को भूल जाता है । वह भूल जाता है कि वह स्वयं ही भगवान है, वह स्वयं हो परमात्मा है और वह स्वय ही ईश्वर है ।
वह प्रवोध, ज्ञानी मानव ईश्वर की खोज पत्थर से करता है, ककर मे करता है, पेड पौधो मे करता है, और पर्वत, नदियों में करता है ।
समुद्र,
पर वह उस जगह की खोज नही करता जहा उसका परमात्मा, ईश्वर, या भगवान विराजा रहता है। उनका ईश्वर तो उसके अन्दर हो रहता है । प्रत्येक आत्मा मे परमात्मा बनने की शक्ति है। ज्ञान के विस्तार से भेद विज्ञान पूर्वक धागे बढता हृया विशेष ज्ञानी ही हो जाता है । विशेष ज्ञानी के जय ज्ञान
चमक उठनी है तो मोह, मिध्यात्व, माया, निदान,
वो
भादि स्वत ही दूर हो जाते हैं ।