Book Title: Bhagavana Adinath
Author(s): Vasant Jain Shastri
Publisher: Anil Pocket Books

View full book text
Previous | Next

Page 166
________________ ( १६४ ) गण जो पराजित हो गए थे---तन उठे। भडक उठे । गरज उठे। और अर्ककीर्ति को उकसाने लगे ___ धिक्कार है आपको जो एक चक्रवर्ती के पुत्र होकर भी चुप हो।' 'हा! हाँ। क्या मान रखा है आपका यहाँ पर।' 'हा । हा । आपके रहते हुए और आपके सेवक को जयमाला | | | डूब मरने की बात है।' 'आप मागे वढिए और जयकुमार का सिर धड से रतार दीजिए । हम आपका साथ देगे।' 'हा । हा । हम भी साथ देंगे।' वैसे ही अर्ककीति के हृदय मे विद्वेप की आग धधक रही थी इस पर इन लोगो ने ऐसी-ऐसी ताने भरी बाते कतर घी का काम किया। अकीर्ति का आवेश क्रोध में बदल गया और क्रोध की आग को वह शमन नहीं कर सका । अपना भस्त्र सम्हालता हुआ वह गरज उठा। 'ठहरो !! xxxx जयकुमार और सुलोचना दोनो-वरमाला की परम्परा को पूर्ण कर एक दूसरे मे खोते हुए उस मरिणमोतियो की झालरो से सुशोभित रथ मे बैठ चुके थे। राजा अकम्पन और रानी सुप्रभा मारे खुशी के फूले नहीं सगा रहे थे । दोनो का चित्त यह जानकर कि 'सुलोचना ने योग्य वर का ही चयन किया है। बहुत ही प्रानन्द मान रहे थे। मत्रीगण आगन्तुको को उपस्थित होने के लिए धन्यवाद दे देकर उत्तम भेट के साथ विदा कर रहे थे।

Loading...

Page Navigation
1 ... 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188 189 190 191 192 193 194 195