Book Title: Bhagavana Adinath
Author(s): Vasant Jain Shastri
Publisher: Anil Pocket Books

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Page 177
________________ zdy ምር क्या तुम मुझे........ 'नही प्रभो । ( १७५ ) • + 1 नही ऐसा मत कहिए । मैं तो ग्रापका आपकी यह दास है | आपका दास हूँ । आपकी महानता 1 वह महानता का भार मैं सह नही सकता योगी क्रीडा थी । कोई विशेष बात थी ही नहीं ने भरत के चरण छलिए । अन्तरग के वात्सल्य और प्रेम से मिष्टान यादि खाया और बहुमूल्य भेट किया । तो एक बालकोप" जयकुमार · •· बातचीत करने के पश्चात् देकर जयकुमार को विदा जयकार अपने श्राप मे अत्यन्त प्रसन्नता को सिमेटे घोडो पर बैठा बैठा हवा हो रहा था। महाराज भरत ने उसका इतना बडा सम्मान किया वह यह सब कुछ देख कर फूला नहीं समा रहा था । रजनी ने विवान का आह्वान किया । प्रभाकर को विदा किया और झिलमिल तारो सितारो की साडी ओढ .. थिरक उठी । val सुलोचना, गया के किनारे उस साझ की मधुर मस्त बेला मे अपने प्रियतम की प्रतीक्षा कर रही पी मोर प्रतीक्षा की घडिया रह रहकर सुस्त हुई जा रही थी, जो मन मे एक तन सी पैदा करती थी। तभी .. · तभी घोड़े की टाप ने उसके मन के तार बजा दिए वह चौकन्नी हो इधर उधर देखने लगी। दूर दूर से प्रियतम को लेकर घोडा दौडा आ रहा था। कुछ ही क्षणो मे प्रियतम उनके सामने थे । गंगा की शीतल धारा की लहरो मे कम्पन पैदा हुई और लहर पर लहर छा गई। एक सिरहन के साथ झन मनाते रोम से भावुक हो सुलोचना, जयकुमार से लिपट गई।

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