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प्रस्तावना
आज का मानव महान् दुखी है। किसी का युवा पुत्र मर गया वह चिल्ला चिल्ला कर रो रहा है। किसी की स्त्री असाध्य रोग से पीड़ित है, वह वेचैन और परेशान है। एक सन्तान के न होने से दुखी है तो दूसरा पुत्र के कुपुत्र होने के कारण अत्यन्त चिन्तातुर रहता है । किसी को भर पेट भोजन नहीं मिलता- तो किन्ही २ को यह चिन्ता लगी हुई है कि उनका अस्वस्थ शरीर भोजन पचाने में असमर्थ है। रान-दिन
आजीविका के लिये कठिन से कठिन परिश्रम करते हुए भी पर्याप्त धन की प्राप्ति नहीं होती और अगर किसी को पुण्योदय से हो भी जाये तो उसके संरक्षण में तो वह सदैव ही चिन्तातुर रहता है। सारांश सर्वत्र अशांति और दुख का ही साम्राज्य है। परन्तु इन दुःखों से मुक्ति प्राप्त करने के लिये पुरुपार्थ विपरीत करते हैं अर्थात् इन्द्रिय विषयों में सुख की कल्पना कर इसी की प्राप्ति में प्रयत्नशील हैं। वास्तविक सुख क्या है और किस प्रकार के पुम्पार्थ द्वारा वह प्राप्त हो सकता ? इस प्रश्न का उत्तर 'आत्मसम्बोधन' ग्रन्थ से प्राप्त होगा जिसके लेखक परमपूज्य प्रातः स्मरणीय श्री १०५ क्षुल्लक वर्णी मनोहर लाल जी न्यायतीर्थ 'सहजानंद' हैं।