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XIX
(२२) मनोभावनाओं की शुद्धि
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने बतलाया है कि मनोभावनाओं की शुद्धि का सबसे बड़ा साधन है एक व्यक्ति का अपने को अपने से अधिक गुणियों का आज्ञावर्ती बनाना । जबकि मनोभावनाओं की शुद्धि के मार्ग में सबसे बड़ा बाधक है एक व्यक्ति का अपने आग्रहों पर चिपके रहना ।
(२३) शास्त्र की प्रतिष्ठा गिराने वाले आचरण की निन्दा
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने बतलाया है कि एक जैन अपनी धर्मपरंपरा की प्रतिष्ठा गिराने वाले आचरण के फलस्वरूप पाप का भागी कैसे बनता है तथा इस धर्म-परंपरा की प्रतिष्ठा बढ़ाने वाले आचरण के फलस्वरूप पुण्य का भागी कैसे ।
(२४) 'पुण्य को जन्म देने वाला पुण्य' आदि
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने एक व्यक्ति के क्रिया-कलाप को चार प्रकार का बतलाया है— पहला वह जो पुण्य को जन्म देने वाले पुण्य का जनक है, दूसरा वह जो पाप को जन्म देने वाले पुण्य का जनक है, तीसरा वह जो पाप को जन्म देने वाले पाप का जनक है, चौथा वह जो पुण्य को जन्म देने वाले पाप का जनक है । स्पष्ट ही इनमें से पहले प्रकार का क्रिया-कलाप सर्वोत्कृष्ट है ( तथा तीसरे प्रकार का क्रिया-कलाप सर्व - निकृष्ट ) ।
(२५) पुण्य को जन्म देने वाले पुण्य का प्रधान फल
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने बतलाया है कि सर्वोत्कृष्ट प्रकार के शुभ क्रिया-कलाप के फलस्वरूप एक व्यक्ति को यह सौभाग्य प्राप्त होता है कि वह अपने अन्तिम जन्म में तीर्थंकर बने । और तीर्थंकर महावीर की मातृगर्भावास — कालीन प्रतिज्ञा को— जिसमें माता-पिता के प्रति गहरी भक्तिभावना का सूचन है— दृष्टान्त बनाकर आचार्य हरिभद्र ने यहाँ यह सिद्ध किया है कि एक तीर्थंकर अपने मातृगर्भावास - काल से ही उदात्त मनोभावनाओं का प्रदर्शन करने लगते हैं ।
( २६ ) तीर्थंकर का दान सचमुच महान् है
इस अष्टक में आचार्य हरिभद्र ने इस आपत्ति का निवारण किया है कि जब जैन धर्म-ग्रंथ कहते हैं कि अमुक तीर्थंकर ने अमुक संख्या में दान
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