Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 99
________________ ७६ प्रति अश्रद्धा के रूप में । आचार्य हरिभद्र की प्रस्तुत पहली कारिका के एक अर्थ से तो यह बात तत्काल स्पष्ट हो जाती है लेकिन उसका दूसरा अर्थ भी तत्त्वतः इसी बात की ओर इंगित कर रहा है । यस्तून्नतौ यथाशक्ति सोऽपि सम्यक्त्वहेतुताम् । अन्येषां प्रतिपद्येह तदेवाप्नोत्यनुत्तरम् ॥३॥ अष्टक - २३ दूसरी ओर, जो व्यक्ति शास्त्र की प्रतिष्ठा बढ़ाने में अपनी शक्ति- भर क्रिया- रत होता है वह दूसरे प्राणियों में सम्यक्त्व (= सद्बुद्धि) को जन्म देने वाला सिद्ध होकर स्वयं भी उच्च कोटि के सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । (टिप्पणी) सम्यक्त्व मिथ्यात्व का ठीक उलटा है— जिससे निष्कर्ष यह निकलता है कि सम्यक्त्वं इस शब्द का फलितार्थ होना चाहिए 'जैन-धर्म में श्रद्धा' । वस्तुतः जैन कर्म - शास्त्र की मान्यतानुसार 'सम्यक्त्व - मोहनीय' भी मोहनीय 'कर्म' का ही एक उप-प्रकार है और अपने समस्त मोहनीय 'कर्म' से मुक्ति पाते समय एक आत्मा सम्यक्त्व - मोहनीय 'कर्म' से भी मुक्त हो जाती है; यह एक ब्योरे की बात है और हमें यहाँ इतना ही समझ लेना चाहिए कि प्रस्तुत मान्यता इस वस्तुस्थिति की ओर इंगित कर रही है कि आध्यात्मिक विकास की उच्चतर भूमिकाओं पर पहुँचे हुए व्यक्ति को 'शास्त्र - श्रद्धा' की आवश्यकता नहीं । स्वयं सम्यक्त्व की उच्चावच तीन भूमिकाएँ हैं और इसीलिए प्रस्तुत व्यक्ति के संबंध में कहा जा रहा है कि वह उच्च कोटि के सम्यक्त्व को प्राप्त करता है । प्रक्षीणतीव्रसंक्लेशं प्रशमादिगुणान्वितम् । निमित्तं सर्वसौख्यानां तथा सिद्धिसुखावहम् ॥४॥ * १ इस सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय तीव्र संतापकारी 'कर्म' नष्ट हो चुके होते हैं तथा प्रशम आदि गुणों का उदय हो रहा होता है, यह सम्यक्त्व सब सुखों का निमित्त कारण है, यह सम्यक्त्व मोक्ष के सुख को दिलाने वाला है । (टिप्पणी) यहाँ 'तीव्रसंतापकारी कर्म' से आचार्य हरिभद्र का आशय एक विशेष रूप से घातक प्रकार के मोहनीय 'कर्म' से हैं; मोहनीय 'कर्म' के इस उप-प्रकार का पारिभाषिक नाम है 'अनन्तानुबंधी कषाय' और समझ यह Jain Education International ★ प्रस्तुत अष्टक की क्रमांक ४ से ८ तक की कारिकाओं के दो पाठ उपलब्ध होते हैं, यहाँ ये दो पाठ क्रमशः दिए जा रहे हैं । For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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