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आत्मस्थमात्मधर्मत्वात् संवित्त्या चैवमिष्यते । गमनादेरयोगेन नान्यथा तत्त्वमस्य तु ॥ ५॥
'केवल' ज्ञान का आश्रयस्थान आत्मा है क्योंकि वह आत्मा का एक धर्म है, क्योंकि हमे वैसी अनुभूति होती है, क्योंकि 'केवल' ज्ञान का (ज्ञेय - प्रदेश में ) जाना आदि संभव नहीं । यदि ऐसा न हो ( अर्थात् यदि 'केवल' ज्ञान का आश्रय-स्थान आत्मा न हो अपितु उसे — अर्थात् 'केवल' ज्ञान को ज्ञेय - प्रदेश में जाना आदि पड़े ) तो वह (अर्थात् 'केवल' ज्ञान) वैसा (अर्थात् लोक तथा अ-लोक दोनों का स्वरूप प्रकट करने वाला) नहीं हो सकता ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि जिस प्रकार एक भौतिक द्रव्य एक दूसरे भौतिक द्रव्य का स्पर्श कर सकता है उस प्रकार एक ज्ञान अपने ज्ञेय विषय का स्पर्श नहीं किया करता । आगामी कारिकाएँ उनके इस आशय को और भी अधिक स्पष्ट करेंगी ।
अष्टक - ३०
यच्च चन्द्रप्रभाद्यत्र ज्ञातं तज्ज्ञातमात्रकम् । प्रभा पुद्गलरूपा यत्तद्धर्मो नोपपद्यते ॥६॥
और जो इस संबंध में चंद्रमा की चाँदनी आदि का दृष्टान्त दिया जाता है वह एक दृष्टान्त मात्र है; क्योंकि चाँदनी एक पुद्गल (अर्थात् एक भौतिक द्रव्य) है और इसीलिए वह चंद्रमा का धर्म नहीं हो सकती ( अथवा 'और इसलिए उस दशा में—अर्थात् 'केवल' ज्ञान तथा चंद्रमा की चाँदनी को सर्वथा सदृश मानने पर 'केवल' ज्ञान आत्मा का धर्म नहीं हो सकता' ) ।
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(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि चंद्रमा की चाँदनी तथा ज्ञान के बीच सबसे बड़ी असमानता यह है कि चाँदनी स्वयं एक द्रव्य है जबकि ज्ञान एक द्रव्य विशेष का ( अर्थात् आत्मा का) एक धर्म विशेष है।
अतः सर्वगताभासमप्येतन्न यदन्यथा ।
युज्यते तेन सन्न्यायात् संवित्त्याऽदोऽपि भाव्यताम् ॥७॥
क्योंकि अन्यथा (अर्थात् यदि चन्द्रमा की चाँदनी की सभी विशेषताएँ 'केवल' ज्ञान में वर्त्तमान मानी जाएँगी तो) 'केवल' ज्ञान का सर्ववस्तुविषयक होना भी चंद्रमा की चाँदनी के दृष्टान्त की सहायता से सिद्ध नहीं होगा । इसलिए समुचित तर्क के आधार पर तथा स्वानुभूति के आधार पर यह बात भी ठीक प्रकार से समझ ली जानी चाहिए (अर्थात् यह बात कि इस संबंध में चंद्रमा
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