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तीर्थंकर का धर्मोपदेश
वीतरागोऽपि सद्वेद्य तीर्थकृन्नामकर्मणः ।
उदयेन तथा धर्मदेशनायां प्रवर्तते ॥१॥
शोभन क्रिया-कलाप के आधार पर विदित होने वाले 'तीर्थंकर' नाम वाले 'नाम-कर्म' के उदय के फलस्वरूप (अथवा 'सातवेदनीय' तथा 'तीर्थंकर' नामवाले 'कर्मों' के उदय के फलस्वरूप) एक व्यक्ति वीतराग होते हुए भी एक विशिष्ट प्रकार से धर्मोपदेश में प्रवृत्त होता है ।
(टिप्पणी) 'वेदनीय' चार प्रकार के अ-घाती 'कर्मों में से एक है तथा 'सातवेदनीय' उसका एक उप-प्रकार 'सातवेदनीय कर्म' के उदय के फलस्वरूप एक व्यक्ति को सुख की अनुभूति होती है । अतः यहाँ आचार्य हरिभद्र का आशय यह हुआ कि एक तीर्थंकर को धर्मोपदेश करते समय सुख की अनुभूति होती है । 'वीतरागोऽपि' यह कहने के पीछे आचार्य हरिभद्र का आशय है कि एक तीर्थंकर द्वारा धर्मोपदेश किए जाने का कारण राग, द्वेष, मोह नहीं ।
वरबोधित आरभ्य परार्थोद्यत एव हि ।
तथाविधं समादत्ते कर्म स्फीताशयः पुमान् ॥२॥ उक्त प्रकार के 'कर्म' का (अर्थात् 'तीर्थंकर' नाम वाले 'नाम-कर्म' का) अर्जन वही उदारचित्त व्यक्ति करता है जो श्रेष्ठ बुद्धि (=सम्यक्त्व, सद्बुद्धि) के उदय होने के समय से ही परोपकार में लगा रहता है ।
(टिप्पणी) 'सम्यक्त्व' तथा 'मिथ्यात्व' इन शब्दों का अर्थ पहले स्पष्ट किया जा चुका है; प्रस्तुत कारिका में आया 'वरबोधि' यह शब्द 'सम्यक्त्व' का ही पर्याय है।
यावत् संतिष्ठते तस्य तत् तावत् संप्रवर्तते । तत्स्वभावत्वतो धर्मदेशनायां जगद्गुरुः ॥३॥
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