Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 126
________________ तीर्थंकर का धर्मोपदेश १०३ यह 'कर्म' (अर्थात् 'तीर्थंकर' नाम वाला 'नाम-कर्म') जब तक उनके निकट वर्तमान रहता है तब तक जगद्गुरु धर्मोपदेश किया करते हैं और वह इसलिए कि यह इस 'कर्म' का स्वभाव ही है। (टिप्पणी) 'नाम-कर्म' चार प्रकार के अ-घाती 'कर्मों' में से एक है तथा 'तीर्थंकर' है 'नाम-कर्म' का एक उप-प्रकार । तीर्थंकर नाम-कर्म मोक्षप्राप्ति के समय तक क्रियाशील रहता है (अर्थात् एक तीर्थंकर मोक्ष-प्राप्ति के समय तक धर्मोपदेश आदि तीर्थंकरोचित कार्यों में लगे रहते हैं) । वचनं चैकमप्यस्य हितां भिन्नार्थगोचराम् । भूयसामपि सत्त्वानां प्रतिपत्तिं करोत्यसौ ॥४॥ जगद्गुरु का वचन एक होते हुए भी अनेकों प्राणियों में गहरी समझ उत्पन्न करता है, वह समझ जो इन प्राणियों की हितकारक है तथा जिसका विषय विविध प्रकार की वस्तुएँ हैं । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि तीर्थंकर के एक ही वाक्य से विभिन्न श्रोताओं को विभिन्न अर्थों की प्रतीति उनकी अपनीअपनी आवश्यकता के अनुसार होती है । अचिन्त्य पुण्यसंभारसामर्थ्यादेतदीदृशम् । तथा चोत्कृष्टपुण्यानां नास्त्यसाध्यं जगत्त्रये ॥५॥ और यह संभव होता है जगद्गुरु के अचिन्त्य (अर्थात् अपरिमित) पुण्य-संचय की सामर्थ्य के कारण । सचमुच, उत्कृष्ट पुण्य से सम्पन्न व्यक्तियों के लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं । अभव्येषु च भूतार्था यदसौ नोपपद्यते । तत्तेषामेव दौर्गुण्यं ज्ञेयं भगवतो न हि ॥६॥ और जो भगवान् (= जगद्गुरु) का यह धर्मोपदेश अभव्य (अर्थात् मोक्ष के अनधिकारी) व्यक्तियों को वस्तुस्वरूप का ज्ञान नहीं करा पाता यह उन व्यक्तियों का ही दोष समझा जाना चाहिए, भगवान् का नहीं । दृष्टश्चाभ्युदये भानोः प्रकृत्या क्लिष्टकर्मणाम् । अप्रकाशो ह्युलूकानां तद्वदत्रापि भाव्यताम् ॥७॥ देखा भी जाता है कि स्वभाव से ही अशुभ 'कर्म' वाले उल्लुओं को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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