Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 117
________________ अष्टक-२८ भी प्रस्तुत प्रसंग में दोष के भागी नहीं । यदि वे ऐसा न करें (अर्थात् यदि वे राज्य-दान आदि कार्य न करें) तो वह बात असंभव हो जाएगी (अर्थात् तब अतिभयंकर दोषों से जन-साधारण की रक्षा असंभव हो जाएगी) । इत्थं चैतदिहैष्टव्यमन्यथा देशनाऽप्यलम् । कुधर्मादिनिमित्तत्वाद् दोषायैव प्रसज्यते ॥८॥ यहाँ यह सब कार्य (अर्थात् जगद्गुरु द्वारा किया गया राज्यदान आदि कार्य) उपरोक्त रूप से ही समझा जाना चाहिए । वरना तो जगद्गुरु द्वारा किया गया धर्मोपदेश भी अत्यधिक दोषों का ही कारण सिद्ध होगा और वह इसलिए कि यह धर्मोपदेश कु-धर्म आदि के उपदेश का निमित्त हुआ करता है । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि एक तीर्थंकर द्वारा जैनेतर धार्मिक मान्यताओं का निरूपण कतिपय आंशिक सत्यों के रूप में ही किया जाता है, लेकिन ये मान्यताएँ यदि अंशत: सत्य हैं तो वे अंशतः असत्य भी हुई । अतः कहना हुआ कि एक तीर्थंकर द्वारा कतिपय अंशतः असत्य मान्यताओं का निरूपण किया जाता है । लेकिन कतिपय अंशतः असत्य मान्यताओं का निरूपण इस प्रकार से करना एक तीर्थंकर के लिए अनिवार्य है और वह इसलिए कि एक पूर्णतः सत्य मान्यता का निरूपण कतिपय अंशतः असत्य मान्यताओं के निरूपण द्वारा ही संभव है । इसी प्रकार बड़े अनर्थों से जन-साधारण की रक्षा किन्हीं ऐसे कार्यों द्वारा ही संभव है जो स्वयं थोड़े बहुत अनर्थों का कारण है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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