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अष्टक-२६
'पूर्णता-प्राप्त' यह किया जा रहा है ।
एवमाहेह सूत्रार्थं तत्त्वतोऽनवधारयन् ।
कश्चिन्मोहात्ततस्तस्य न्यायलेशोऽत्र दर्श्यते ॥४॥
प्रस्तुतवादी ने ये बातें हमारे शास्त्र-वचन के अर्थ को तर्क-पूर्वक समझे बिना तथा मोहवश कह डाली हैं । अतः हम संक्षेप में यही दिखाने चलते हैं कि प्रस्तुत प्रसंग में हमारा तर्क क्या है।
महादानं हि संख्यावदर्थ्यभावाज्जगद्गुरोः ।
सिद्धं वरवरिकातस्तस्याः सूत्रे विधानतः ॥५॥
जगद्गुरु (तीर्थंकर) का महान् दान संख्या वाला इसलिए है कि उनके सामने माँगने वाले ही नहीं रहे यह बात उनकी 'वर माँगो' 'वर माँगो' इस उक्ति से सिद्ध होती है और इस उक्ति का उल्लेख शास्त्र में हुआ है ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि जगद्गुरु का दान एक सीमित संख्या वाला इसलिए है कि उनके सामने एक सीमित संख्या वाले व्यक्ति ही दान लेने के लिए आए । जैसा कि हम आगे देखेंगे आचार्य हरिभद्र की यह भी समझ है कि यह जगद्गुरु की महिमा है कि उनकी उपस्थिति में एक सीमित संख्या वाले व्यक्तियों को ही दान लेने की आवश्यकता पड़ी ।
तया सह कथं संख्या युज्यते व्यभिचारतः ।
तस्माद्यथोदितार्थं तु संख्याग्रहणमिष्यताम् ॥६॥ 'वर माँगो' 'वर माँगो' इस उक्ति के साथ दान की संख्या का मेल कहाँ (बशर्ते कि माँगने वाले उपस्थित हों) ?—क्योंकि ये दोनों परस्परविरोधी बातें हैं । अतः प्रस्तुत दान के प्रसंग में संख्या की बात उक्त अर्थ में ही ली जानी चाहिए (अर्थात् इस अर्थ में कि जगद्गुरु के सामने माँगने वाले इतनी ही संख्या में आए) ।
महानुभावताऽप्येषा तद्भावे न यदर्शिनः ।
विशिष्टसुखयुक्तत्वात् सन्ति प्रायेण देहिनः ॥७॥
दूसरे, यह भी जगद्गुरु का महान् शक्ति वाला होना ही हुआ कि उनकी उपस्थिति में प्राणियों को माँगने की आवश्यकता प्रायः नहीं पड़ती है और वह इसलिए कि उस समय ये प्राणी सुखी हुआ करते हैं ।
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