Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 86
________________ मदिरा-पान के दोष मद्यं पुनः प्रमादांगं तथा सच्चित्तनाशनम् । संधानदोषवत्तत्र न दोष इति साहसम् ॥१॥ जहाँ तक मदिरा का प्रश्न है वह प्रमाद उत्पन्न करने वाली है, शुभ मनोभावनाओं का नाश करने वाली है और वह उन दोषों वाली है जो जलमिश्रित बहुत से पदार्थों में उत्पन्न हो जाया करते हैं (अर्थात् सूक्ष्म जीवों की उत्पत्ति रूप दोष वाली है); ऐसी मदिरा के संबंध में यह कहना कि उसे पीने में कोई दोष नहीं एक दुःसाहस वाली बात है (अथवा 'जहाँ तक मदिरा का प्रश्न है वह प्रमाद उत्पन्न करनेवाली है तथा शुभ मनोभावनाओं का नाश करने वाली है; ऐसी मदिरा के संबंध में यह कहना एक दुःसाहस वाली बात है कि उसे पीने में कोई दोष उसी प्रकार नहीं जैसे कि जल-मिश्रित बहुत से पदार्थों को पीने में) । (टिप्पणी) यहाँ 'संधानदोषवत्' इस शब्द के दो अर्थ ध्यान देने योग्य हैं; इनमें से एक अर्थ करने पर 'संधान' आचार्य हरिभद्र की दृष्टि में दोषयुक्त ठहरता है लेकिन पूर्वपक्षी की दृष्टि में नहीं जबकि इनमें से दूसरा अर्थ करने पर 'संधान' आचार्य हरिभद्र तथा पूर्वपक्षी दोनों की दृष्टि में दोष-हीन ठहरता है—अर्थात् यहाँ पहला अर्थ होगा 'जल में पदार्थों का मिश्रण तथा उसमें सूक्ष्म जीवों का उत्पन्न होना' जबकि दूसरा अर्थ होगा जल में पदार्थों का मिश्रण' । किं वेह बहुनोक्तेन प्रत्यक्षेणैव दृश्यते । दोषोऽस्य वर्तमानेऽपि तथा भंडनलक्षणः ॥२॥ अथवा बहुत कुछ कहने से क्या लाभ ? हम अपने सामने प्रत्यक्ष भी देखते हैं कि मदिरा-पान से उस उस प्रकार के लड़ाई-झगड़े रूप दोष उत्पन्न होते हैं। श्रूयते च ऋषिर्मद्यात् प्राप्तज्योतिर्महातपाः । स्वर्गांगनाभिराक्षिप्तो मूर्खवन्निधनं गतः ॥३॥ (पुराण-कथाओं में) सुना भी जाता है कि महा-तपस्वी तथा ज्ञान रूप Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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