Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 96
________________ ७३ मनोभावनाओं की शुद्धि अपने को गुणियों का वशवर्ती बनाना । (टिप्पणी) इस अष्टक की पहली कारिका में आचार्य हरिभद्र ने 'स्वाग्रह' को 'प्रज्ञापना-प्रियता (= शास्त्र - भक्ति)' का विरोधी बतलाया था, प्रस्तुत कारिका में वे स्वाग्रह को 'गुणवत्पारतंत्र्य' का विरोधी बतला रहे हैं । इससे समझा जा सकता है कि आचार्य हरिभद्र 'प्रज्ञापन-प्रियता' इस शब्द को कुछ ऐसा व्यापक अर्थ पहनाना चाहते हैं कि वह 'गुणवत्पारतंत्र्य' इस शब्द का पर्याय बन जाए । अत एवागमज्ञोऽपि दीक्षादानादिषु ध्रुवम् । क्षमाश्रमणहस्तेनेत्याह सर्वेषु कर्मसु ॥५॥ इसीलिए एक शास्त्रज्ञ व्यक्ति भी दीक्षा-दान आदि सभी धर्म-कार्यों के संबंध में यही कहता है कि यह कार्य सद्गुरु के हाथों होना चाहिए । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि एक सामान्य सद्व्यक्ति शास्त्र को जाने भर हो सकता है जबकि एक सद्गुरु शास्त्र के संबंध में निष्णात हुआ करता है; इसीलिए एक सद्-व्यक्ति स्वयं शास्त्रज्ञ होते हुए भी अपने सभी शुभ कार्यों का सम्पादन एक सद्गुरु की निर्देशकता में करता है । इदं तु यस्य नास्त्येव स नोपायेऽपि वर्तते । भावशुद्धेः स्वपरयोर्गुणाद्यज्ञस्य सा कुतः ॥६॥ __ जो व्यक्ति गुणियों का वशवर्ती नहीं वह मनोभावनाओं की शुद्धि के कारणों के ग्रहण की दिशा में भी नहीं बढ़ता (मनोभावनाओं की शुद्धि की दिशा में बढ़ने की तो बात दूर रही); सचमुच, जो व्यक्ति अपने तथा दूसरों के गुण आदि को नहीं जानता उसकी मनोभावनाएँ शुद्ध होंगी ही कहाँ ? तस्मादासन्नभव्यस्य प्रकृत्या शुद्धचेतसः । स्थानमानान्तरज्ञस्य गुणवद्बहुमानिनः ॥७॥ औचित्येन प्रवृत्तस्य कुग्रहत्यागतो भृशम् । सर्वत्रागमनिष्ठस्य भावशुद्धिर्यथोदिता ॥८॥ अतः यह सिद्ध हुआ कि मनोभावनाओं की वास्तविक शुद्धि उसी व्यक्ति में होती है जो मोक्ष का अधिकारी होते हुए मोक्ष का निकटवर्ती है, जो स्वभाव से ही शुद्ध चित्त वाला है, जो पद तथा पद के बीच मानपात्रता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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