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अग्नि-कर्म (हवन)
"जो व्यक्ति धर्मार्जन के उद्देश्य से धर्नोपार्जन का प्रयत्न करता है उसके लिए अधिक अच्छा होगा कि वह धनोपार्जन का प्रयत्न ही न करे, कीचड़ को धोने की अपेक्षा अधिक अच्छा है कि कीचड़ से दूर रहकर उसे छुआ ही न जाए ।"
(टिप्पणी) 'अष्टक' के एक मुद्रित संस्करण के संपादक की सूचनानुसार प्रस्तुत श्लोक महाभारत-अन्तर्गत 'वनपर्व' के दूसरे अध्याय से लिया गया है। प्रसंग को देखते हुए यहाँ महाभारतकार का आशय यह होना चाहिए कि यदि कोई व्यक्ति धनोपार्जन इस समझ से करे कि इस धनोपार्जन के दौरान में होने वाले पाप का प्रक्षालन इस धन के एकांश का दान आदि करके पर लिया जाएगा तो इस व्यक्ति के लिए अधिक अच्छी बात यह होगी कि वह धनोपार्जन की दिशा में जाए ही नहीं ।
मोक्षाध्वसेवया चैताः प्रायः शुभतरा भुवि ।
जायन्ते ह्यनपायिन्य इयं सच्छास्त्रसंस्थितिः ॥७॥
वस्तुतः मोक्ष-मार्ग की (अर्थात् ज्ञान तथा ध्यान की) सेवा के फलस्वरूप ही (अर्थात् मोक्ष-मार्ग में सहायक होने के फलस्वरूप ही) इस संसार में सम्पत्ति अपेक्षाकृत अधिक शुभ (अर्थात् अपेक्षाकृत कम अशुभ) तथा निर्दोष प्रायः बन जाया करती हैं, श्रेष्ठ शास्त्रों की मान्यता तो यही है।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि मोक्ष-मार्ग में सहायक होने पर सम्पत्ति कम अशुभ भले ही हो जाए लेकिन वह अशुभ तो बनी ही रहती है और इसीलिए एक व्यक्ति को चाहिए कि वह मोक्ष के उन साधनों का—अर्थात् ज्ञान तथा ध्यान का आश्रय ले जो सर्वथा शुभ हैं। यहाँ 'प्रायः' इस शब्द के प्रयोग से आचार्य हरिभद्र कदाचित् यह सूचित करना चाहते हैं कि कुछ व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का उपयोग मोक्ष-मार्ग में सहायक होने वाले एक साधन के रूप में भी नहीं करते ।
ईष्टापूर्तं न मोक्षांगं सकामस्योपवर्णितम् ।
अकामस्य पुनर्योक्ता सैव न्याय्याऽग्निकारिका ॥८॥ 'इष्ट' तथा 'पूर्त' नाम वाले क्रिया-कलाप मोक्ष का कारण नहीं, क्योंकि उनका विधान सांसारिक कामनाओं वाले व्यक्तियों के लिए किया गया है । और जहाँ तक इस प्रकार की कामनाओं से रहित व्यक्तियों का प्रश्न है उनके लिए उचित होगा कि वे उपरोक्त प्रकार के हवन का ही आश्रय लें ।
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