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माँस- भक्षण के दोष - २
अन्योऽविमृश्य शब्दार्थं न्याय्यं स्वयमुदीरितम् । पूर्वापरविरुद्धार्थमेवमाहात्र वस्तुनि ॥१॥
इसी संबंध में (अर्थात् माँस- भक्षण के ही संबंध में) एक अन्य वादी ने अपने ही द्वारा कहे गए एक न्यायोचित वाक्य के शब्दार्थ पर विचार किए बिना तथा (इसीलिए) पूर्वापर विरुद्ध निम्नलिखित बातें कह डाली हैं :
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(टिप्पणी) अगली दो कारिकाओं में प्रस्तुतवादी का मत उपस्थित किया गया है । टीकाकार के कथनानुसार इस मत में पूर्वापरविरोध दो प्रकार से दिखाया जा सकता है— एक इस आधार पर कि पहली कारिका में कही गई बात दूसरी कारिका में कही गई बात के विरुद्ध ठहरती है, दूसरे इस आधार पर कि पहली कारिका के पूर्व-भाग में कही गई बात उस कारिका के उत्तरभाग में कही गई बात के विरुद्ध ठहरती है ।
न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने । प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला ॥२॥
"माँस-' - भक्षण में कोई दोष नहीं, न मदिरा पान में और न मैथुन में 1 ये क्रियाएँ तो प्राणियों के लिए स्वाभाविक हैं। हाँ, इन क्रियायों से विरत होना बड़ा फलदायी है ।
मांस भक्षयिताऽमुत्र यस्य मांसमिहाम्यहम् । एतन्मांसस्य मांसत्वं प्रवदन्ति मनीषिणः ॥३॥
अगले जन्म में मुझे वह (माँस:) प्राणी खाएगा जिसका माँस इस समय मैं खा रहा हूँ — मनीषियों का कहना है कि माँस की मांसता इसी बात में है
(टिप्पणी) प्रस्तुत कारिका में माँस का वर्णन किया गया है 'माँस: ' इस शब्द को 'मां' तथा 'सः' इन दो भागों में बाँट कर और फिर इन दो शब्दों
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