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लब्ध्याद्यपेक्षया ह्येतदभव्यानामपि क्वचित् । श्रूयते न च तत् किंचिदित्यपेक्षाऽत्र निन्दिता ॥३॥
किसी लाभ की अपेक्षा से प्रत्याख्यान अभव्य व्यक्ति भी किया करते हैं (अर्थात् वे व्यक्ति भी जो स्वभावतः मोक्ष के अनधिकारी हैं) ऐसा वर्णन शास्त्र में कहीं कहीं मिलता है, लेकिन इस प्रकार का प्रत्याख्यान किसी काम का नहीं । यही कारण है कि प्रत्याख्यान के पीछे किसी अपेक्षा का रहना एक निन्दित बात है ।
(टिप्पणी) जैन - परंपरा में आत्माएँ दो प्रकार की मानी गई हैं- एक वे जो स्वभावतः मोक्ष की अधिकारी हैं तथा दूसरी वे जो स्वभावतः मोक्ष की अनधिकारी हैं । इनमें से पहली का पारिभाषिक विशेषण 'भव्य' है तथा दूसरी का 'अभव्य' ।
यथैवाऽविधिना लोके न विद्याग्रहणादि यत् । विपर्ययफलत्वेन तथेदमपि भाव्यताम् ॥४॥
अष्टक - ८
जिस प्रकार संसार में देखा जाता है कि विधिपूर्वकता के अभाव में किया गया विद्या-ग्रहण आदि सच्चा विद्या - ग्रहण आदि नहीं— और वह इसलिए कि उस दशा में इस संबंध में किया गया प्रयत्न उलटा फल देने वाला सिद्ध होता है— उसी प्रकार प्रस्तुत विषय में भी ( अर्थात् प्रत्याख्यान के विषय में भी ) समझना चाहिए (अर्थात् विधिपूर्वकता के अभाव में किया गया प्रत्याख्यान भी उलटा फल देने वाला सिद्ध होता है ) ।
अक्षयोपशमात् त्यागपरिणामे तथासति । जिनाज्ञाभक्तिसंवेग - वैकल्यादेतदप्यसत् ॥५॥
बाधक ‘कर्मों' का क्षयोपशम (अर्थात् वेग-शान्ति) न होने के कारण जब मन में त्याग रूप शुभ मनोभावना आवश्यकतानुसार प्रकट न हो रही हो उस समय किया जाने वाला प्रत्याख्यान भी अशोभन है, और वह इसलिए कि ऐसा प्रत्याख्यान करने वाले व्यक्ति के मन में न तो जिनों (अर्थात् पूज्य शास्त्रकारों ) की आज्ञा के प्रति भक्ति-भावना रहती है न संसार के प्रति भय की भावना (अथवा मोक्ष के प्रति अभिलाषा की भावना) ।
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(टिप्पणी) 'क्षयोपशम' जैन कर्म - शास्त्र का एक पारिभाषिक शब्द है संक्षेप में कहा जा सकता है कि एक व्यक्ति का एक पूर्वार्जित
'कर्म'
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