________________
१७
माँस-भक्षण के दोष-१
भक्षणीयं सता माँसं प्राण्यंगत्वेन हेतुना ।
ओदनादिवदित्येवं कश्चिदाहातितार्किकः ॥१॥ किसी ‘अति-तार्किक' का कहना है : “एक बुद्धिमान् व्यक्ति को माँस खाना चाहिए, क्योंकि माँस एक प्राणी (के शरीर) का भाग है, उसी प्रकार जैसे चावल ।"
(टिप्पणी) अन्य सभी वनस्पतियों की भाँति धान का पौधा भी एक एक इन्द्रिय वाला अर्थात् केवल स्पर्शेन्द्रिय वाला—प्राणी है यह एक जैन मान्यता है । और प्रस्तुतवादी का कहना है कि यदि चावल, जो एक एकेन्द्रिय प्राणी के शरीर का भाग है, खाया जा सकता है तो माँस भी, जो एक अनेकेन्द्रिय प्राणी के शरीर का भाग है, खाया जाना चाहिए ।
भक्ष्याभक्ष्यव्यवस्थेह शास्त्रलोकनिबंधना ।
सर्वैव भावतो यस्मात् तस्मादेतदसाम्प्रतम् ॥२॥
(इस पर हमारा उत्तर है :) क्योंकि वस्तुतः सभी भक्ष्य-अभक्ष्य व्यवस्था शास्त्र तथा लोक-व्यवहार के आधार पर निर्णीत होती है इसलिए प्रस्तुतवादी का उपरोक्त कहना उचित नहीं ।
(टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का विश्वास है कि शास्त्र (विशेषतः जैन शास्त्र) ही नहीं बल्कि लोक-व्यवहार भी माँस को अ-भक्ष्य ठहराता है ।
तत्र प्राण्यंगमप्येकं भक्ष्यमन्यत्तु नो तथा ।
सिद्धं गवादिसत्क्षीररुधिरादौ तथेक्षणात् ॥३॥
यहाँ (अर्थात् शास्त्र तथा लोक-व्यवहार में) किसी प्राणी (के शरीर) का भाग होते हुए भी एक वस्तु भक्ष्य मानी जाती है तथा दूसरी नहीं, क्योंकि गाय आदि के रुचिकर दूध तथा रक्त आदि के संबंध में हम यही वस्तुस्थिति पाते हैं (अर्थात् गाय के शरीर का भाग होते हुए भी दूध भक्ष्य है तथा रक्त
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org