Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 63
________________ ४० कहलाता है । (टिप्पणी) 'छल' तथा 'जाति' ये न्यायशास्त्र के दो पारिभाषिक शब्द हैं लेकिन उनका फलितार्थ उपरोक्त ही है । विजयो ह्यत्र सन्नीत्या दुर्लभस्तत्त्ववादिनः । तद्भावेऽप्यन्तरायादिदोषोऽदृष्टविघातकृत् ॥५॥ इस प्रकार के वाद में ईमानदारी से विजय पाना एक सत्यवादी व्यक्ति के लिए कठिन है और यदि इसमें उसे विजय मिल भी जाए तो भी उसका परलोक बिगड़ता ही है - वह इसलिए कि उस दशा में पराजित व्यक्ति के पथ में विघ्न उपस्थित होना आदि दोष यहाँ उठ खड़े होते हैं । (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि लाभ की इच्छा से वाद के मैदान में उतरने वाला व्यक्ति यदि वाद में पराजित हो जाए तो इसका अर्थ यह हुआ कि उसके पथ में (अर्थात् उसकी लाभ - प्राप्ति के पथ में ) विघ्न उपस्थित हो गया । और इस विघ्न का निमित्त कारण — अतएव पाप का भागी — होगा वाद - विजेता तपस्वी । परलोकप्रधानेन मध्यस्थेन तु धीमता । स्वशास्त्रज्ञाततत्त्वेन धर्मवाद उदाहृतः ॥ ६ ॥ अष्टक - १२ परलोक की चिन्ता मुख्य भाव से करने वाले, तटस्थ - चित्त, बुद्धिमान, तथा अपने अभीष्ट शास्त्र के मूल मन्तव्य को जानने वाले एक व्यक्ति के साथ होने वाला वाद 'धर्मवाद' कहलाता है । विजयेऽस्य फलं धर्मप्रतिपत्त्याद्यनिंदितम् । आत्मनो मोहनाशश्च नियमात्तत्पराजयात् ॥७॥ ऐसे वाद में विजय पाने का फल होता है उक्त व्यक्ति द्वारा धर्म का स्वीकार किया जाना आदि निर्दोष काम और उक्त व्यक्ति के हाथों पराजय पाने का अवश्यंभावी फल होता है अपने मोह का नाश । Jain Education International (टिप्पणी) स्पष्ट ही यहाँ 'धर्म' से आचार्य हरिभद्र का आशय जैन धर्म से होना चाहिए । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि एक जैनेतर सद्वादी के हाथों एक जैन की पराजय की उपयोगिता भी उन्हें स्वीकार है । देशाद्यपेक्षया चेह विज्ञाय गुरुलाघवम् । तीर्थकृज्ज्ञातमालोच्य वादः कार्यो विपश्चिता ॥८॥ For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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