Book Title: Astaka Prakarana
Author(s): K K Dixit
Publisher: L D Indology Ahmedabad

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Page 52
________________ ज्ञान विषयप्रतिभासं चात्मपरिणतिमत्तथा । तत्त्वसंवेदनं चैव ज्ञानमाहुमहर्षयः ॥१॥ महर्षियों ने ज्ञान तीन प्रकार का बतलाया है—एक 'विषय का प्रतिभास' रूप, दूसरा 'शुभ मनोभावना वाला', तीसरा 'तत्त्व का संवेदन' रूप। (टिप्पणी) प्रस्तुत तीन प्रकार के ज्ञानों को आचार्य हरिभद्र ये नाम क्यों दे रहे हैं यह आगामी कारिकाओं में स्पष्ट हो जाएगा । विषकण्टकरत्नादौ बालादिप्रतिभासवत् । विषयप्रतिभासं स्यात् तद्धेयत्वाद्यवेदकम् ॥२॥ विष, कांटा, रत्न आदि को देखते समय जिस प्रकार की वस्तु-प्रतीति एक बालक आदि के मन में उत्पन्न होती है उस प्रकार की वस्तु-प्रतीति को 'विषय का प्रतिभास' रूप ज्ञान कहते हैं और यह ज्ञान अपनी विषयभूत वस्तु के संबंध में यह जानकारी नहीं कर पाता कि वह त्याग करने योग्य आदि है (अर्थात् त्याग करने योग्य, ग्रहण करने योग्य अथवा उपेक्षा करने योग्य है)। (टिप्पणी) आचार्य हरिभद्र का आशय यह है कि जो ज्ञान अपने विषय के स्वरूप मात्र की जानकारी कराता है न कि इस विषय के गुण-दोषों की भी वह ज्ञान है 'विषय का प्रतिभास' रूप (न कि 'विषय के गुण-दोषों का प्रतिभास' रूप) । और इस ज्ञान को एक बालक के ज्ञान जैसा इसलिए बतलाया जा रहा है कि एक बालक एक वस्तु के बाहरी (अर्थात् इन्द्रियगोचर) रूप मात्र को पहचानता है इस वस्तु के गुण-दोषों को नहीं । निरपेक्षप्रवृत्त्यादिलिंगमेतदुदाहृतम् । अज्ञानावरणापायं महापायनिबंधनम् ॥३॥ इस प्रकार के ज्ञान की पहचान यह बतलाई गई है कि उसके फलस्वरूप होने वाली क्रिया आदि के अवसर पर (अर्थात् क्रिया, क्रिया-विरति Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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