________________
भिक्षा
सर्वसम्पत्करी चैका पौरुषनी तथाऽपरा ।
वृत्तिभिक्षा च तत्त्वज्ञैरिति भिक्षा त्रिधोदिता ॥१॥ तत्त्ववेत्ताओं ने भिक्षा तीन प्रकार की बतलाई है—एक सर्वसम्पत्करी भिक्षा, दूसरी पौरुषघ्नी भिक्षा, तीसरी वृत्तिभिक्षा ।
(टिप्पणी) इन तीन प्रकार की भिक्षाओं का जो वर्णन आचार्य हरिभद्र अभी करने जा रहे हैं उससे स्पष्ट हो जाएगा कि इनके ये ये नाम क्यों हैं ।
यतिर्ध्यानादियुक्तो यो गुर्वाज्ञायां व्यवस्थितः । सदानारंभिणस्तस्य सर्वसम्पत्करी मता ॥२॥ वृद्धाद्यर्थमसंगस्य भ्रमरोपमयाऽटतः ।
गृहिदेहोपकाराय विहितेति शुभाशयात् ॥३॥
ध्यान आदि से सम्पन्न, गुरु की आज्ञा-पालन में रत तथा पाप-क्रियाओं से सदा-विरत जो साधु है उसकी भिक्षा सर्वसम्पत्करी मानी गई है। (भिक्षार्थी) यह साधु भ्रमर की भाँति विचरण करता है—वयोवृद्ध आदि (अपने सखासाधुओं) के लिए भिक्षा माँगता हुआ, अनासक्त भाव से भिक्षा माँगता हुआ, दाता गृहस्थ तथा अपने शरीर पर उपकार करने की भावना से भिक्षा माँगता हुआ, इस प्रकार का भिक्षोपार्जन उसके लिए शास्त्र-विहित है इस शुभ-भावना से भर कर भिक्षा माँगता हुआ (अथवा दाता गृहस्थ तथा अपने शरीर पर उपकार करने के उद्देश्य से इस प्रकार के भिक्षोपार्जन का विधानशास्त्र में किया गया है इस शुभ भावना से भरकर भिक्षा माँगता हुआ) ।
(टिप्पणी) समझना सरल है कि इन कारिकाओं में वणित प्रकार की भिक्षा को आचार्य हरिभद्र सर्वश्रेष्ठ प्रकार की भिक्षा मानते हैं और इसीलिए उन्होंने इसे 'सर्वसम्पत्करी (= सब सम्पत्तियों अर्थात् सौभाग्यों को दिलाने वाली)' यह नाम दिया है । 'सदानारंभी' का शब्दार्थ तो होना चाहिए 'सभी क्रियाओं से सदा विरत व्यक्ति' लेकिन इसका फलितार्थ है 'सभी पाप-क्रियाओं से सदा विरत
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org