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महादेव
यस्य संक्लेशजननो रागो नास्त्येव सर्वथा । न च द्वेषोऽपि सत्त्वेषु शमेंधनदवानलः ॥१॥ न च मोहोऽपि सज्ज्ञानच्छादनोऽशुद्धवृत्तकृत् ।
त्रिलोकख्यातमहिमा महादेवः स उच्यते ॥२॥
चित्त को संक्लिष्ट अर्थात् अस्वस्थ बनाने वाले राग से जो व्यक्ति सर्वथा ही शून्य है, प्राणिवर्ग के प्रति उस द्वेष से भी जो व्यक्ति सर्वथा ही शून्य है, जो चित्त की शान्ति रूपी ईंधन के लिए दावानल जैसा है, शोभन ज्ञान को आच्छादित कर देने वाले तथा अशुद्ध आचरण कराने वाले मोह से भी जो व्यक्ति सर्वथा ही शून्य है, तीनों लोकों में जिस व्यक्ति की महिमा प्रसिद्ध है वही व्यक्ति महादेव कहलाता है।
(टिप्पणी) इन कारिकाओं से जाना जा सकता है कि आचार्य हरिभद्र उन सभी व्यक्तियों को 'महादेव' यह नाम देने को तैयार हैं जिनमें राग, द्वेष तथा मोह इन तीन प्रधान चरित्र-दोषों का सर्वथा अभाव है ।
यो वीतरागः सर्वज्ञो यः शाश्वतसुखेश्वरः । क्लिष्टकर्मकलातीतः सर्वथा निष्कलस्तथा ॥३॥ यः पूज्यः सर्वदेवानां यो ध्येयः सर्वयोगिनाम् ।
यः स्रष्टा सर्वनीतीनां महादेवः स उच्यते ॥४॥
जो व्यक्ति वीतराग है, सर्वज्ञ है, शाश्वत सुख से सम्पन्न है, जो व्यक्ति क्लिष्ट अर्थात् संसार-चक्र में फंसाने वाले 'कर्मों' के रंच से भी मुक्त है तथा जो (कालांतर में) सभी प्रकार के कर्मों' के रंच से भी मुक्त है (अथवा जो व्यक्ति संसार-चक्र में फंसाने वाले-अर्थात् सभी प्रकार के 'कर्मों' के रंच से भी मुक्त है तथा जो सभी प्रकार के शरीरावयवों से रहित है), जिस व्यक्ति की सब देवता पूजा करते हैं, जिसका सब योगी ध्यान करते हैं, जो व्यक्ति सभी
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