Book Title: Anusandhan 2015 03 SrNo 66
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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फेब्रुआरी - २०१५
वृन्दावनकाव्यनी श्रीशान्तिसूरिविरचित वृत्तिनी वि.सं. १५१६मां लखायेली ओक हस्तप्रतनो उल्लेख जै.सं.सा.इ. - भाग-२, प्रकरण ३५मां छे. पण ते प्रत उपलब्ध न थतां, हंसविजयजी जैन शास्त्रसंग्रह-वडोदरा, डा.१, प्र.नं. १०, पृ. ८ - ए हस्तप्रत परथी प्रस्तुत सम्पादन करवामां आव्युं छे. प्रत अनुमानतः २०मा सैकामां लखायेली छे. प्रतमां अशुद्धिओ घणी छे, पण अर्थसङ्गतिने आधारे यथामति शुद्ध करीने अत्रे सम्पादन कर्यु छे. ज्यां सहेज पण संशय लाग्यो त्यां ज कौंसमां शुद्ध पाठ सूचव्या छे, ते सिवाय सीधा मूळ वाचनामां ज सुधारा कर्या छे.
__ कैलाससागरसूरि-ज्ञानमन्दिर-कोबामां तपास करतां श्रीशान्तिसूरिरचित ६ काव्योनी टीकामांथी वृन्दावनकाव्य सिवायनी टीकाओ प्रगट जणाई छे.
संस्कृतसाहित्यरसिकोने आ काव्य अने तेनी सुगम टीका आह्लाद आपशे तेवी खातरी सह...
वृन्दावनकाव्यम् - सटीकम् वर्धमानं सुधामानं देवेन्द्रैः कृतसक्रियम् । वर्धमानं महामानं नत्वा देशितसत्क्रियम् ॥१॥ वृन्दावनादिकाव्यानां यमकैरतिदुर्विदाम् ।
वक्ष्ये मन्दप्रबोधाय पञ्चानां वृत्तिमुत्तमाम् ॥२॥
आदौ तावत् काव्यकरणे प्रवर्तमान उग्रसेनतनयो मानाङ्को मङ्गलप्रतिपादनाय शिष्टसमाचारपरिपालनार्थं चेष्टदेवतायै विष्णवे नमस्कारमाह -
. वरदाय नमो हरये पतति जनो यं स्मरन्नपि न मोहरये । .. बहुशश्चक्रन्द हता मनसि दितिर्येन दैत्यचक्रं दहता ॥१॥
तस्मै हरये- विष्णवे नमोऽस्तु- नमस्कारो भवतु । कीदृशाय ? वरदाय । वरं- वाञ्छितार्थं सेवकाय ददातीति वरदस्तस्मै । यं हरिं जनोलोको न पतति- न गच्छति । क्व ? मोहरये । अज्ञानवेगे मूढो न भवतीत्यर्थः । किं कुर्वन् ? स्मरन्नपि- ध्यायन्नपि, तिष्ठतु पूजादिकम् ।
येन हरिणा हता- दुःखिता सती मनसि- चित्ते चक्रन्द-आक्रन्दितवती । कथम् ? बहुशोऽतिशयेन । दितिर्दानवमाता । किं कुर्वता? दहता- भस्मसात्

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