Book Title: Anusandhan 2009 00 SrNo 47 Author(s): Shilchandrasuri Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad View full book textPage 8
________________ मार्च २००९ होता है । श्रीमुनिचन्द्रसूरि बृहद्गच्छीय सर्वदेवसूरि के प्रशिष्य और श्री यशोभद्रसूरि के शिष्य थे । आपको सम्भवतः श्रीनेमिचन्द्रसूरि ने आचार्य पद प्रदान किया था । आपके विद्यागुरु पाठक विनयचन्द्र थे । आप न केवल असाधारण विद्वान तथा वादीभपंचानन थे, अपितु अत्युग्र तपस्वी और बालब्रह्मचारी भी थे । आप केवल सौवीर (कांजी) ही ग्रहण करते थे, इसी कारण से आप 'सौवीरपायी' के नाम से प्रसिद्ध हुए । आपके अनुशासन में ५०० साधु और साध्वियों का समुदाय निवास करता था । तत्समय के प्रसिद्ध वादीकण्ठकुद्दाल आचार्य वादी देवसूरि जैसे विद्वान् के गुरु होने का आपको सौभाग्य प्राप्त था । गुर्जर, लाट, नागपुर इत्यादि आपकी विहारभूमि थी। ग्रन्थ रचनाओं में प्राप्त उल्लेखों को देखते हुए आपका पाटण में अधिक निवास हुआ प्रतीत होता है । आपका स्वर्गवास सं० ११७८ में हुआ है । आप तत्समय के प्रसिद्ध और समर्थ टीकाकार तथा प्रकरणकार हैं। आपके प्रणीत टीका-ग्रन्थों की तालिका इस प्रकार है : १. देवेन्द्र-नरकेन्द्र-प्रकरण वृत्ति सं० ११६८ पाटण चक्रेश्वराचार्य संशो. २. सूक्ष्मार्थविचारसार प्र० चूर्णी सं० ११७० आमलपुर शि. रामचन्द्र सहायता से ३. अनेकान्तजयपताकावृत्त्युपरि सं० ११७१ टिप्पन ४. उपदेशपद टीका सं० ११७४ (नागौर में प्रारम्भ और पाटण में समाप्त) ५. ललितविस्तरापञ्जिका ६. धर्मबिन्दु वृत्ति ७. कर्मप्रकृति टिप्पन प्रकरणों की तालिका निम्न प्रकार है : १. अंगुल सप्तति १०. मोक्षोपदेश पञ्चाशिका २. आवश्यक सप्तति ११. रत्नत्रय कुलक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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