Book Title: Anusandhan 2009 00 SrNo 47
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 82
________________ मार्च २००९ ৩৩ दूसरा ग्रन्थ ध्यानदीपिका चतुष्पदी के नाम से राजस्थानी भाषा में है। इस चतुष्पदी के प्रणेता चौवीसी और अध्यात्मगीताकार उपाध्याय श्री देवचन्दजी हैं । जो कि 'युगप्रधान जिनचन्द्रसूरि की परम्परा में राजसागर के शिष्य थे। इस चतुष्पदी की रचना विक्रम संवत् १७६६ मुलतान में की गई है। भणसाली गोत्रीय मिठुमल के आग्रह से यह रचना की गई है। यह रचना छ: खण्डों में है और योगनिष्ठ स्वर्गीय आचार्य श्री बुद्धिसागरसूरि ने सम्पादन कर श्रीमद् देवचन्द्र भाग-१ में विक्रम संवत् १९७४ में प्रकाशित किया है ।। जैसा कि उपाध्याय देवचन्दजी ने इस चतुष्पदी को प्रशस्ति के रूप में लिखा है कि मैंने शुभचन्द्राचार्य कृत ज्ञानार्णव ग्रन्थ जो संस्कृत भाषा में है उसका राजस्थानी भाषा में अनुवाद किया है, जिसमें अट्ठावन ढालें हैं - पंडितजन मनसागर ठाणी, पूरणचंद्र समान जी । सुभचंद्राचारिजनी वाणी, ज्ञानीजन मन भाणी जी ॥ ध्यानक० २ भविक जीव हितकरणी धरणी, पूर्वाचारिज वरणी जी । ग्रंथ ज्ञानार्णव मोहक तरणी, भवसमुद्र जलतरणी जी । ध्यानक० ३ संस्कृतवाणी पंडित जाणे, सरव जीव सुखदाणी जी । ज्ञाताजनने हितकर जाणी, भाषारूप वखाणी जी । ध्यानक० ४ ढाल अठावन षड अधिकारु, शुद्धातमगुण धारु जी । आखे अनुपम शिवसुखवारु, पंडितजन उरहारु जी ॥ ध्यानक० ५ उपाध्याय देवचन्द्रजी तो ध्यानदीपिका ग्रन्थ का आधार शुभचन्द्राचार्य कृत ज्ञानार्णव को मानते हैं। जबकि सकलचन्द्रगणि ने इसका कोई उल्लेख नहीं किया है । अत: ज्ञानार्णव का और सकलचन्द्रगणि कृत ध्यानदीपिका का समीक्षण आवश्यक है। शुभचन्द्राचार्य रचित ज्ञानार्णव ग्रन्थ, जैन संस्कृत संरक्षक संघ, सोलापूर से सन् १९७७ में सानुवाद प्रकाशित हुआ था । इसके अनुवादक पंडित बालचन्द्र शास्त्री थे । इसका रचना काल १२वीं शताब्दी क है । इसमें ३७ अधिकार हैं । श्लोक संख्या २२३० है । ज्ञानार्णव की एक टीका लब्धिविमलगणि कृत श्वेताम्बर प्रतीत होती है । रचना समय १७२८ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 80 81 82 83 84 85 86