Book Title: Anusandhan 2009 00 SrNo 47
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 83
________________ ७८ अनुसन्धान ४७ लेखकाल १७३० है । इसकी प्रति दिगम्बर जैन मन्दिर गोधों का जयपुर, वेस्टन नं. १९४ है । यह लब्धिविमल श्वेताम्बर जैन यति ही प्रतीत होता है । (राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची चतुर्थ भाग पृ. १०८, नं. १३९३) सकलचन्द्रगणि कृत ध्यानदीपिका में कुल २०६ पद्य हैं । दोनों ग्रन्थों को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानार्णव विषयानुसार ३९ विभाजन में प्राप्त होता है जबकि ध्यानदीपिका में विभाजन नहीं है किन्तु अनुकरण तो ज्ञानार्णव के अनुसार ही है । ऐसा प्रतीत होता है कि ज्ञानार्णव का यह संक्षिप्त संस्करण हो । ध्यानदीपिका में लगभग २५ पद्य तो वैसे के वैसे ही इसमें उद्धृत हैं । लगभग ३० पद्यों के प्रथम चरण या चरणों का साम्य है । तुलना की दृष्टि से देखिये : ज्ञानार्णव एकचिन्तानुरोधो यस्तद्ध्यानं भावनाः पराः । अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा तज्ज्ञैरभ्युपगम्यते ॥११९५॥ वीतरागो भवेद्योगी यत्किञ्चिदपि चिन्तयेत्। तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्ये ग्रन्थविस्तराः ॥२०२९।। ध्यानदीपिका एकचिन्तानिरोधो यस्तद्ध्यानं भावनाः पराः। अनुप्रेक्षार्थचिन्ता वा ध्यानसन्तानमुच्यते॥६६॥ वीतरागो भवेत् योगी यत्किञ्चिदपि चिन्तयन्। तदेव ध्यानमाम्नातमतोऽन्ये ग्रन्थविस्तराः ।।६८॥ अनिष्टयोगजं चाद्यं परं चेष्टवियोगजम्। रोगार्तं च तृतीयं स्यात् निदानार्तं चतुर्थकम् ॥७०॥ राज्यैश्वर्यक्लवपुत्रविभवक्षेत्रस्वभोगात्यये। चित्तप्रीतिकरप्रशस्तविषयप्रध्वंसभावेऽथवा। सन्त्रासश्रमशोकमोहविवशैर्य चिन्त्यतेऽहर्निशम् । तत्स्यादिष्टवियोगजंतनुमतां ध्यानं मनोदुःखदम् ।।७३॥ दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदार्थश्चित्तरञ्जकै। वियोगे यन्मनःक्लेशः स्यादातँ चेष्टहानिजम्।।७४।। अनिष्टयोगजन्माद्यं तथेष्टार्थात्ययात्परम्। रुक्प्रकोपात्तृतीयं स्यान्निदानात्तुर्यमङ्गिनाम् ॥१२०३॥ राज्यैश्वर्यक्लवबान्धवसुहृत्सौभाग्यभोगात्यये, चित्तप्रीतिकरप्रसन्नविषयप्रध्वंसभावेऽथवा। सन्त्रासभ्रमशोकमोहविवशैर्यत्खिद्यतेऽहनिशं, तत्स्यादिष्टवियोगचंतनुमतां ध्यानं क्लङ्कास्पदम् ॥१२०८।। दृष्टश्रुतानुभूतैस्तैः पदाथैश्चित्तरञ्जर।। वियोगे यन्मनः खिन्नं स्यादात तद्वितीयकम् ॥१२०९।। ध्यान दीपिका के पद्याङ्क कोष्ठक रहित हैं और ज्ञानार्णव के पद्याङ्कः कोष्ठक सहित हैं। ७५ (१२१०); ७८ (१२१४); ८२ (१२२५); ८७ (१२३९); ८८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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