Book Title: Anusandhan 2009 00 SrNo 47
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 84
________________ मार्च २००९ ७९ (१२३८); ९० (१२४९); ९६ (१२६४); ११७ (१३२४); १२० (१६२१); १२३ (१६४०); १४२ (१८८६); १४३ (१८८७); १४४ (१८८८); १४५(१८८९); १४६ (१८९०); १४८ (१८९२); १५४ (१९२०); १६८ (२०७६); १७३ (१५०५); १७४ (१५०६); १७५ (१५०७); १७८ (१५७५); १९२ (२१२५); १९७ (२१४८); १९८ (२१४९); १८१ (२११४); १९९ (२१५२) प्रारम्भिक चरणों की तुलना कीजिए : १२ (१२८३); २१ (११७); ३२ (१८०); ३७ (१९४); ४३ (११७); ४७ (२७०); ५५ (२८८); ६१ (११६८); ७२ (१२०६); ९२ (१२५१); ९६ (१२६४); १०० (१४६२); ११२ (१२८३); १२९ (१६९०); १३० (१२६९); १३७ (१८७७); १३८ (१८७८); १३९ (१८८०); १४७ (१८९१); १६२ (१९९२); १७० (१९४१); १७८ (१५७४); १८१ (२११४); २०० (२१५२) इस तुलनात्मक अध्ययन से प्रतीत होता है कि ज्ञानार्णव का आधार लेकर सकलचन्द्रगणि ने संग्रह ग्रन्थ के रूप में इस ध्यान दीपिका का निर्माण किया है । कुछ श्लोक पूर्ण रूप से कुछ एक चरण के रूप में उद्धृत करके शेष श्लोकों की रचना स्वयं ने की हो । अतः यह कहा जा सकता है कि यह मौलिक ग्रन्थ न होकर ज्ञानार्णव का आभारी है।। सम्भव है श्री हेमचन्द्राचार्य कृत योगशास्त्र के साथ तुलना करने पर अनेक पद्य यथावत् प्राप्त हो सकते हैं । अनुवादक श्री विजयकेसरसरिजी महाराज ने ध्यान दीपिका के श्लोक संख्या २०६ में निम्न पद्य उद्धृत किया है जो कि ज्ञानार्णव में नहीं है : "चन्द्रार्कदीपालिमणिप्रभाभिः किं यस्य चित्तेऽस्ति तमोऽस्तबोधम् । तदन्तकी क्रियतां स्वचित्ते ज्ञान्यंगिनः ध्यानसुदीपिकेयम् ॥२०६॥" इस श्लोक के अनुवाद में कर्ता के सम्बन्ध में आचार्यश्री लिखते "इस श्लोक के प्रारम्भ में आये हुए चन्द्र शब्द से इस ग्रन्थ के कर्ता सकलचन्द्र उपाध्याय का नाम भी प्रकट होता है, क्योंकि पूर्णिमा का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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