Book Title: Anusandhan 2009 00 SrNo 47
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 81
________________ ७६ अनुसन्धान ४७ उपाध्याय सकलचन्द्रकणि रचित ध्यान-दीपिका (संस्कृत) संग्रह ग्रन्थ है - म. विनयसागर स्वास्थ्य की दृष्टि से एवं मन को साधित करने की दृष्टि से जीवन में योग का विशिष्ट प्रभाव है | योग की साधना से ही व्यक्ति योगी बनता है और त्रियोग को स्वाधीन कर केवलज्ञानी बनकर सिद्धावस्था को भी प्राप्त होता है । प्राचीन योग के सम्बन्ध में साधना की प्रणाली अवश्य रही होगी। आचारांगसूत्र में प्रयुक्त विपष्य शब्द को लेकर यह सिद्ध है कि उस समय भी ध्यान साधना की प्रणाली थी । जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण कृत ध्यानशतक प्राचीनतम ग्रन्थ माना जाता है । आप्त आचार्य हरिभद्रसूरि ने आवश्यकसूत्र की बृहट्टीका में इस ग्रन्थ को पूर्ण रूप से उद्धृत किया है। आचार्य हरिभद्र के योग सम्बन्धी चार ग्रन्थ प्राप्त होते हैं और कलिकाल सर्वज्ञ हेमचन्द्राचार्य का योगशास्त्र प्रसिद्ध ही है । न्यायाचार्य यशोविजयजी का भी योग सम्बन्धी विषयों पर अधिकार था । ध्यानदीपिका नामक ग्रन्थ के दो संस्करण प्राप्त होते हैं । एक संस्करण संस्कृत भाषा का जिसके प्रणेता उपाध्याय सकलचन्द्रगणि माने गए हैं । सकलचन्द्रगणि के इस ग्रन्थ का उल्लेख 'जिनरत्नकोष' और 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' में भी किया गया है । जिनरत्नकोष के अनुसार सकलचन्द्रगणि कृत ध्यानदीपिका कि एक प्रति डेला उपाश्रय, अहमदाबाद में सुरक्षित है । सम्भवतः इस प्रति का या अन्य प्रति का उपयोग करके योगनिष्ठ आचार्य विजयकेसरसूरिजी महाराज ने विस्तृत विवेचन/टीका लिखी। इसका प्रकाशन मुक्ति चन्द्र श्रमण आराधना ट्रस्ट, पालीताणा से सन् २००१ में हुआ है । आचार्यश्री ने इसका अनुवाद गुजराती में किया था और हिन्दी अनुसार प्रो. बाबूलाल टी. परमार ने किया था । अनुवादक श्री विजयकेसरसूरिजी महाराज स्वयं ही योगनिष्ठ साधक थे, अपने अनुभव के साथ इस विस्तृत विवेचन को लिखा है, जो कि योगसाधकों के लिए अत्यन्त उपयोगी है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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