Book Title: Anusandhan 2009 00 SrNo 47
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
मार्च २००९
४३
पाउ मुझ धोई पाणी पीयेंजी निपट कपट धरै नेह । मानिनी ते कहैं माहजी अधिक मन हंस छै एह वीतग० ॥३|| चमरजातीय मृगपुंछनाजी मांस खावा मुझ हंस ।। मैं कह्यौ ते किहां पामीजी हाथ आवै किण रुंस वीतग० ॥४॥ नारि कहैं राजगृह नगरीयजी श्रेणिकरायनैं गेह । जाइ आणौ तुम्हे जुगतिसुंजी अरज मानौ मुझ एह वीतग० ॥५।। आवीयौ हंई उतावलौजी राजगृहनगर आराम ।। रंगसुं वेसीया तिहां रमैंजी मगधसेना तसु नाम वीतग० ॥६॥ एक विद्याधर आइनैंजी अपहरी ले गयौ वेस । करें तब परिजन कुंकवाजी ऊपनौ एह कलेस वीतग० ॥७॥ तांणि सर वीधीयौ मैं तिकोजी मगधसेना तजी तेण ।
आइनैं ल्यै मझ वारणाजी हं तझ पगतणी रेण वीतग० ॥८॥ गिणि उपगार गणिका तिणजी ले गई मुझ भणी गेह । मुझ भणी पूछीयौ पूठलौजी सरव संबंध ससनेह वीतग० ॥९॥ मैं कह्यौ सरल चित्रौं सहूजी अटकल्या तेण आचार । कपट केलवि करि काढियौजी सील विण ताहरी नारि वीतग० ॥१०॥ मैं कह्यौ माहरी मानिनीजी पतिभगती बहु प्रेम । ते कहैं जो सती हैं हि तू जी काढीयौ पति भणी केम वीतग० ॥११॥ इक दिनैं तिहां रहतां थकांजी नगर कोलाहल होइ । मस्तमातंग छूटौ तिकोजी झालि सकें नही कोइ वीतग० ॥१२॥ तुरत मैं कबज कीधौ तिकोजी जस हूऔ माहरौ जोर । हुं रहुं हरखि गणिका घरेजी नित करें भगति निहोर वीतग० ॥१३॥ वेस कहैं आज नृप आगलैंजी नाटक करिस मनरंग । तुम्ह पिण बैंसि देखौ तिहांजी आयनैं रायनैं संग वीतग० ॥१४॥ मैं कह्यौ हुं नही आवसुंजी ते गई नाटक काज । मैं जाण्यौ माह कांमरौजी एह अवसाण छै आज वीतग० ॥१५॥ नाटक देखिया सहु गयाजी भूपर्ने गृह नही कोइ । हरिणनौ पुच्छ हरतां थकांजी देखता था जणा दोइ वीतग० ॥१६॥ तिण पुरुषे मुझ झालिनँजी आणीयौ राज हजूर ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86