Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 48
________________ 43 ढण, च छ ज झ ञ, प फ ब भ म त थ द ध न, श ष स ह य र ल व ॥ मूलदेवीयम् ॥ २८४॥ • हंसी भौती च याक्षी च, नाक्षत्री मूलदेव्यपि । राक्षसी द्रविडी नाटी मालवी लाटि - नागरी ॥ तौरकी पारसीकी च यावनी कीरि-सैन्धवी । अनिमित्ताऽपि चाणाकी लिपयोऽष्टादशाऽप्यमूः ब्राह्म्यै दत्ता भगवता, तन्नाम्ना विश्रुताऽस्तु ॥ आदिदेवेन ब्राह्मीसंज्ञितायै पुत्र्यायिति ॥ " नमो बंभीए लिवीए" इति प्रवचनं च ॥ सर्वं सुकरमभ्यस्त - सम्प्रदायादयो यदि । आहोपुरुषिकाहेतोर्मा वक्र - जडताऽस्तु नः ॥ इति तु शब्दार्थः ॥ २८५॥ इति परिसमाप्तो यथावाप्तो लिपिनिर्देश: ॥ Jain Education International X – अतः परं मीमांसा भविष्यति ॥ २८६ ॥ नमः पावय ॥ शिष्यानुमोदिनी तासा-मियं पर्यायतोऽजनि : (नि) । वस्तुतोऽनादयः सर्वाः स्थावर - सवद् गिरः || नाऽऽसीत्, न भविष्यति वा समयो यत्र नाऽभूवंस्त्रसा न भविष्यति (न्ति) स्थावरा वेति ॥२८७॥ नित्यताऽनित्यताऽस्तित्व - नास्तित्वादिविशेषणैः । अनन्तैर्भारतीर्विद्या-स्तटिनीरिव भङ्गिनीः ॥ नहि विशेष्यस्य विशेषणानि संख्येयान्यसंख्येयानि वेति वक्तुं पार्यते ॥ २८८ ॥ इवर्णस्य कथं यत्वं नित्यतैकान्तमस्तु चेत् । अनित्यतैव चेदास्ते स एवार्थगमः कथम् ? ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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