Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
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अति घणा आरंभ जे करइ, परमांस भक्षण वलि करइ,
संवेगरस मनमां वस्यउ, अभिग्रह लीधउ एहवो
"
तिण समई तिहां किण प्रगटीयो, हाहाकार हियउ तिहां,
छठा अरउ सरिखउ थयउ, प्रेम-भाव सहु माठा पड्या
एहवइ घरणी इम भणइ, खंजनी पर बसी रह्यो
,
उद्यम विना किम चालिस्य ई,
सरवर तटइ जइ माछला
>
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एहवा वयण सुणी करी, परजीव आतम सम अछई,
प्रिय तणा वचन सुणी करी, वंच्यउ तुमइ रे वरतीये,
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मूर्छित परिग्रहमांहि वध त्रस जीव हो इंद्री पांचाहि .
।।१९.सां
गुरुवचन सांभलि चित्त, न करूं वध हो पर आप निमित्त.
॥२०. सां
कल्पांत सम दुक्काल,
माल मुलक तिहां खाधा ततकाल. ।।२१. सां
जन करई मांसनउ भक्ष,
जाणे माणस हो राक्षस परतक्ष.
निज कुटुंब मेटी भूत, पालिस किम हो घरना पूत.
।।२२.सां
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।।२३.सां
आजीविका सुणि कंत, लेइ आवउ हो खावां निश्चित.
।।२४.सां
बोल्यउ तिहां ततकाल, तिण न करूं हो हिंसा विकराल.
।। २५.स
,
बोली प्रिया तब वयण : धूतारा रे ते नहीं तुझ सयण.
।।२६.सां.
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