Book Title: Anusandhan 1998 00 SrNo 12
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 72
________________ 67 दूहा पूरण पाली अउखउ हुयउ महधिक दे रे, वलि नरभव पामी करी , करिस्यइ जिन ध्रम सेव रे. ॥१२५ दीक्षा लेइ अनुक्रमइ पामी केवलनाण प्रतिबोधी बहु भविजन लहिस्यइ पूनिरवाण ॥१२६ ढाल-१० (भरतनृप भावसुं ओ , एहनी . .) विरति तणा फल इम सुणीए , दामन्नक कुलपुत्र विरति धरम आदर श्रीजिनवर इम उपदेश्यो ए , फल पचक्खाण वस्त्र वि० ॥१२७ ए संबंध वखाणीयउ ए , वृत्ति आवश्यकमांहि , वि० तिणयी एनइ ए दाखव्यउ ए , मनमां धरीय उच्छाहि. वि० ॥१२८ तुं छउ अधिकउ जे कह्यउ ए , मिच्छामि दुक्कखडताम् , वि० जिण कारण छदमस्तनउ ए , चंचल वचन विलास. वि० ॥१२९ श्रीखरतरगच्छ दिनकरु ए युगवर श्रीजिनचंद्र , वि० रीहड वसइ परगडउ ए जिण प्रतिबोध्या नरेंद्र. वि० ||१३० तासु सीस मतिसर गुरु ए पुन्य प्रधान उवझाय , वि० तसु शिष्य सुमतिसागर भला ए, पाठक पंडितराय. वि० ॥१३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96 97 98 99 100 101 102 103 104 105 106 107 108 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140