Book Title: Anusandhan 1995 00 SrNo 04
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad

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Page 25
________________ ओरेंसरु मणुस, णउ खज्जसि पिज्जसि । पूअ सरिक्खउ उअ, सुणिहालिउ किज्जसि ॥ आ पद्यनो अर्थ समजातो नथी । वेलणकरे आपेली संस्कृत छाया परथी पण कशी सुसंगत अर्थ करी शकातो नथी । वेलणकरे ओरेंसरु ए आद्य अक्षरोनी छाया आपी नथी । आमां शरुमां औरें शब्द संबोधनवाचक होवानुं जणाय छे ते अने ते पछीथी आवता मणुसनुं संबोधन छे. आम्रदेवसूरि कृत 'आख्यानकमणिकोश' वृत्ति (इ. स. ११३३) मां एक अपभ्रंश भाषामां रचेल आख्यानमा आ संबोधन - शब्दना बे प्रयोग मळे छे : (१) ओरिं चलु कायर म करि खेउ । (पृ. ८५, १-१५-२) ('चलु' नहीं पण 'वलु' जोईए) 'रे कायर, तुं पाछो वळ, खेद न कर. (२) उरई वलु रे निष्फल वग्गिय (पृ. ८७, २-६-३) (छंद- दृष्टिए 'ओरई' जोईए) 'रे नकामी बडाश हांकनारा, तुं पाछो वळ'. (८) झंबडक-गीत प्रभाचंद्राचार्यकृत 'प्रभावकचरित' (ई.स. १२७८) ना वृद्धवादिसूरिचरितमां एक एवो प्रसंग छे के वृद्धवादी भृगुपुरनी समीपमां गोवाळोने प्रतिबोध करवा माटे पोते तत्काळ लोकभाषामां रचेलुं एक गीत, रासनृत्यमां घूमतां घूमतां अने ताळीथी ताल आपतां गाय छे : सूरयस्तत्सदभ्यस्त-गीत-बडकैस्तदा । भ्रांत्वा भ्रांत्वा ददानाश्च तालमेलेन तालिकाः ॥ प्राकृतोपनिबंधेन सद्यः संपाद्य रासकम् । ऊचुः ॥ (पद्य १५८ - १५९, पृ. ६०) ए गीत आ प्रमाणे छे : नवि मारियइ नवि चोरिअर, पर-दारह संगु निवारिअ । थोवाह वि थोवउं दाईअइ, तउ सग्गि टुगट्टुगु जाइअ‍ || एटले के 'कोईने मारीए नहीं, चोरी न ए, परस्त्रीनो संग न करीए, थोडामांथी पण थोडानुं दान करीए तो टगमग स्वर्ग पामीए.' Jain Education International [24] For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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