Book Title: Anusandhan 1995 00 SrNo 04
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: Kalikal Sarvagya Shri Hemchandracharya Navam Janmashatabdi Smruti Sanskar Shikshannidhi Ahmedabad
View full book text
________________
॥४३॥
॥४४॥
॥४५॥
॥४६॥
मंतंमि पुव्वसेवा जइ तुच्छफले वि वुच्चइ इहं ता । मोक्खफले वि उवहाणलक्खणा किं न कीरई सा एइए परमसिद्धी जायइ जं ता ददं तओ अहिगा । जत्तम्मि वि अहिगत्तं मव्वस्सेयाणुसारेण अह सक्कविरयणाओ सक्कत्थय नोवहाणमुववन्नं । ' एयं पि केण सिटुं जमेस सक्केण रइउ त्ति सक्कस्स अविरइत्ता जिणथुई जइ अणेण णुन्नाया । ता तक्कओ त्ति सो वुत्तुमेवमुचियं कहं तम्हा केवलिणा दट्टणं उवइट्ठाणं च विरइयाणं च । नवकारमाइयाणं महप्पभावुत्तियाणं तिक्कालियमहवा सत्तकालियसमरणे निउत्ताणं । जुत्तं चिय उवहाणं महानिसीहे निबद्धाणं उवहाणविहीणाण वि मरुदेवाईण सिवगमो दिट्ठो । एवं च वुच्चमाणे तवदिक्खाईण वि निसेहो इय भूरिहेउजुत्तीजुयंमि बहुकुसलसलहिए मग्गे । कुग्गहविरहेणुज्जमह महह जइ मुक्खसुहमणहं
॥४७॥
॥४८॥
॥४९॥
॥५०॥
॥ उवहाण-पंचासयं सम्मत्तं ॥ ॥ इति विंशतितमं प्रकरणं सम्मत्तं ॥
[38]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org

Page Navigation
1 ... 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 83 84 85 86 87 88 89 90 91 92 93 94 95 96