Book Title: Anekant 1989 Book 42 Ank 01 to 04 Author(s): Padmachandra Shastri Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 4
________________ क्या सब ठीक हो रहा है ? शब्दानामनेकार्था:--शब्दो के अनेक अर्थ होते है। यह एक प्रसिद्ध वाक्य है और मुक्तावली-विश्वलोचन आदि ऐसे अनेक कोश हैं जिनमे एक-एक शब्द के अनेक अर्थ दिए गये हैं। इसी परम्परा मे हमारे समक्ष अभी 'समयसार' शब्द के भी अनेक अर्थ आए है। यद्यपि अभी तक ये अर्थ अनेकार्थक कोशो में नहीं आ सके है पर, यदि जनता का रुझान इन वर्तमान अर्थों की ओर रहा तो सन्देह नही कि इन्हें भी कोशों में स्थान मिल जाय । आचार्य कन्दकन्द ने समयसार लिखा और उनका पूरा कथन आत्मा के परिप्रेक्ष्य मे रहा। और अन्य व्याख्याकारो ने भी 'समय' शब्द को षड्दव्यो के निर्देश मे बतला, उनमे से सारभूत आत्मा को ही स्व-ग्राह्य मामा । तथाहि-'स्व-स्वगुणपर्यायाप्रति सम्यक् प्रकारेण अयन्ति गच्छन्ति इति ममयाः पदार्थाः । तेषा मध्ये सार: ग्राह्य. समयसार: आत्मा इत्यर्थ.।'-अर्थात् जो भले प्रकार से अपने गुणो और पर्यायो को प्राप्त होते रहते है वे समय यानी पदार्थ हैं और उन पदार्थों मे (जीव को) प्रयोजनीभूत--ग्राह्य होने से आत्मा मात्र ही सार हैइसके सिवाय अन्य सभी द्रव्य जीव के लिए असार है, अग्राह्य है। 'समयसार' शब्द के अर्थ प्रसग मे एक सज्जन ने हमे यह भी बताया कि 'समयसार' तो ए .. ग्रन्थ का नाम है। जब कोई कहता है-'समयसार लाओ' तो कोई उसे आत्मा थोड़े ही पकड़ा देता है। वह तो अल्मारी खोलकर अन्य ही तो लाता है और स्वाध्यायकर्ता उस ग्रन्थ को आसन्दी पर विराजमान कर उसका स्वाध्याय कर लेता है। और फिर कुन्दकुन्द ने भी तो शास्त्र ही रचा था-आत्मा को तो रचा नही। सो हम तो जितना बनता है कुन्दकुन्द के समयसार ग्रन्थ का उपयोग कर लेते हैं। अमृतचन्द्र और जयसेन आदि आचार्यों ने भी समयसार शास्त्र की ही व्याख्या की है। इससे भी सिद्ध होता है कि-'समयसार' एक शास्त्र विशेष का नाम है। तीसरा अर्थ जो हमारे सामने है वह आधुनिक है और लोगो का उससे लगाव भी दिखता है । यानी अाज का मुनि और श्रावक अधिकांशतः (सभी नही) समझ रहा है कि-समय यानी टाइम (Time) ! और टाइम (वर्तमान) का जो सार है या वर्तमान टाइम में जो सार (ग्राह्य) माना जा रहा है वह समयसार है-पैसा । और आज अर्थ-युग माना जा रहा है । हर आदमी अर्थ के पीछे दौड रहा है। उसको पूर्ण विश्वास हो गया है कि पैसे से कोई भी काम कराया जा सकता है। जबकि जैनधर्म इसका अपवाद है और वह पैसे को परिग्रह में शुमार कर उसे पाप कह रहा है हेय कह रहा है । ऐसा क्यो ? इस प्रकार के अनेक प्रश्न उलझन मे डाल रहे है। हमारी दृष्टि मे उक्त तीनो अर्थों में से प्रथम दो अर्थ आगमानुकूल और धर्म सम्मत है। प्रथम अर्थ सर्वथा उपादेय है और दूसरा अर्थ उस उपादेय में साधनभूत है। यानी जब ग्रन्थ का स्वाध्याय करेंगे तब मार्ग मिलेगा और बाद मे शुद्ध अत्मतत्वरूप समयसार में आया जा सकेगा। अब रही तीसरे अर्थ (पैसा) रूप अर्थ की बात, सो जैन की दृष्टि से तो पैसे की पकड़ तो पतन का ही मार्ग है । पैसा परिग्रह है और शास्त्रो मे परिग्रह को पाप कहा है। जैन शास्त्रो मे जो 'जल मे भिन्न कमल' और 'भरत जी घर ही मे वैरागी' जैसे कथानक है वे स्पष्ट कह रहे है कि यदि पैसा आदि वैभव मे सार होता तो तीर्थकर आदि उसे क्यो त्यागते ? जब कि आज का गृहस्थ ही नहीं, कई त्यागी तक पैसे से चमत्कृत हो रहे है और किसी मे अकुश लगाने की हिम्मत नहीं हो रही कि त्यागी का काम चन्दा-चिट्ठा करना-कराना नही-वे ऐसी प्रवृत्तियो से विराम लें, आदि । क्या, यह सब ठीक हो रहा है ? जरा सोचिये! -सम्पादकPage Navigation
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