Book Title: Anekant 1970 Book 23 Ank 01 to 06 Author(s): A N Upadhye Publisher: Veer Seva Mandir Trust View full book textPage 7
________________ ४ वर्ष २३ कि० १ है। यहां सरोवर यह संसार ही है। कमल जो उसमें हैं, वे मानवप्रजा हैं और केन्द्रस्थ बड़ा कमल उस प्रजा का राजा है जो चार पुरुष उसे तोड़ने को धाते हैं, वे मिथ्यात्वी है और जो कमल को तोड लेता है वह एक जैन साधू है जो सच्चा धर्म सुना कर राजा को मुग्ध कर लेता है और इस प्रकार उसका धर्म विजयी होता है । इस रूपक के निहिताशय के अतिरिक्त भी एक बात मुझे बिलकुल स्पष्ट यह प्रतीत होती है कि राजा की छत्रछाया ही धर्म प्रचार पाते हैं और इसलिए राज्याश्रय प्राप्त करने में पूरी-पूरी प्रतिद्वन्द्वता या होडा होड़ होती थी। नायाधम्मकहाओ मे चार बहुत्रों का एक रूपक है। यह एक सामान्य लोक कथा ही है जिसका उपयोग धार्मिक लक्ष्य के लिए बड़ी चतुराई से किया गया है। एक चतुर वसुर अपनी चार पुत्रवधुओं को शाति के पायांच दाने दे कर कहता है कि ये दाने मागने पर उन्हें उसे लौटाने होंगे। सबसे बड़ी पुत्रवधू अभिमानी पर पितारहित है, अतः वह उन दानो को यह सोचते हुए तुरन्त फेंक देती है कि घर के भण्डारों में शालि ही शालि भरे हैं । दूसरी भी कुछ ऐसा ही सोचती है, परन्तु फेंक देने के एवज वह उन दानों को खा जाती है । तीसरी बड़ी सावधानी से उन्हें अपने ग्राभूषणों के बच्चे में सुर क्षित रख देती है और चौथी उन्हें वो देती है और फिर उनसे अच्छी फसल काटती है जिसके परिणामस्वरूप पाँच वर्ष के अन्त में उसके पास घान की एक बड़ी राशि इकट्ठी हो जाती है । श्वसुर अंत में दोनों बड़ी बहनों को दण्ड देता है, तीसरी को समस्त सम्पत्ति की सुरक्षा का भार सौंप देता है और चौथी को गृहस्थी का सारा ही प्रबन्ध | चारों बधुएं चार भिक्षु हैं और शालि के पांच दाने उनके पांच महाव्रत है कुछ भिक्षु इनकी उपेक्षा करते हैं तो कुछ उनका सावधानी से पालन करते है । परन्तु कुछ ऐसे भी महान भिक्षु हैं जो केवल स्वयं ही उन पांच महाव्रतों का पालन नहीं करते, अपितु उनका उपदेश भी दूसरों की भलाई के लिए करते हैं। माकंदी राजकुमारों का कथानक नाविकों की ही एक कहानी है। जिसे रूपक का रूप देकर धर्म में दृढ़ श्रद्धा रखने की आवश्यकता के उपदेश का लाभ उठाया गया है। उत्तरा + अनेकान्त ध्ययन में भी इस प्रकार के कुछ रूपक हैं। भेष का रूपक (प्रध्याय ७) उस व्यक्ति की दशा का चित्रण करता है। कि जो सांसारिक सुखों में ही रचापचा रहता है और यह शिक्षा देता है कि मनुष्य जीवन ऐसा धन है कि जिससे मोक्ष प्राप्त करना चाहिए यदि पूंजी नष्ट कर दी जाती है तो जीव या तो नरक में जाता है या तियंच होता है । वृक्ष का पत्र ( अध्याय १०) मानवी भोग-सुखों की प्रसारता बताता है। इसमे हृदयग्राही उपमाएं दी गई है और प्रमाद नही करने को मुमुक्षु को बारम्बार सावपान किया गया है। अडियल बैल का दृष्टान्त यद्यपि एकदम सीमा और सादा है, परन्तु गुरु के अविनयी और झगड़ालू शिष्य की बड़ी हृदयस्पर्शी टीका उसमें है । सिद्ध-पुरुषों की जीवन-कथाएं भी अनेक हमारे सामने श्राती है कि जिनमे गुणों और अवगुणों के अच्छे और बुरे परिणामों के दृष्टात प्रस्तुत हुए है। कथा के पात्र न केवल अच्छे लोक में ही फिर जन्म लेते है श्रपितु महावीर पार्श्व और नेमि उपदिष्ट धर्म का आचरण करते हुए वे मोक्ष तक प्राप्त कर लेते हैं । अथवा उसके विरुद्ध प्राच रण कर नीच योनि मे ही नहीं अपितु नरक में भी जन्म पाते है। कितने ही मिथ्यात्वियों के तीर्थंकर के धर्म मे श्री जाने को भी कहा गया है। इन कथानों मे से कुछ तो बिलकुल मूल से ही जैन है और अन्य भारतीय कथासाहित्य के साधारण पुंज में से जैनाचार का प्रचार करने के लिए चुन कर उपयोगी बना ली गई है और इनका हिन्दू एवम् बौद्ध दोनों ही साहित्य मे प्रतिरूप प्राप्त है। इनमें धनेक जीवनियाँ, कृष्ण, ब्रह्मदत, श्रेणिक यादि विश्वात व्यक्तियों से सम्बन्धित कथाओं के चकमाल से जुड़ी हैं। जैन धर्म के अनुसार घर्मिष्ठ गृहस्थ और गृहस्थिणी के गुण सर्व त्यागमय वैरागी जीवन के अवश्य ही प्रेरक हैं। और यदि कोई गृहस्थ धार्मिक जीवन के पदों का निष्ठा से निरतर पालन करता रहे तो वह बिना प्रयास ही भिक्षु जीवन की स्थिति को अनायास स्वतः प्राप्त कर लेता है । स्वभावतः ही अधिकांश जीवनियाँ दृष्टिकोण में वैराग्यप्रधान है। श्रमण धर्म और उसमें भी विशेष रूप से जन धर्म ने बैराग्य पर बहुत बल दिया है और इसी का यह परिणाम है कि जैन साहित्य में वैरागी-वीरों की कुछPage Navigation
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