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वर्णी जी का प्रात्म-मालोचन पोर समाधि-संकल्प
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जामो। नट की तरह इन उत्तम स्वांगों की नकल की- श्रवण में प्रानन्द मानता है। जिसे पर की निन्दा में प्रर्थात् क्षुल्लक बन गये । इस पद को धारण किये ५ वर्ष प्रसन्नता होती है उसे प्रात्मनिन्दा में स्वयंमेव विषाद होता हो गये परन्तु जिस शान्ति के हेतु यह उपाय था, उसका है। जिसके निरन्तर हर्ष विषाद रहते हों वह सम्यग्ज्ञानी लेश भी न पाया, तब यही ध्यान में पाया कि तुम अभी कैसा । यद्यपि मात्मा ज्ञान दर्शन का पिण्ड है फिर भी न उसके पात्र नहीं। किन्तु इतना होने पर भी व्रतों के जाने क्यों उसमें राग द्वेष होते हैं। वस्तुतः इनका मूल त्यागने का भाव नहीं होता। इसका कारण केवल लोकषणा कारण हमारा संकल्प है अर्थात् पर में निजत्व कल्पना है । है। अर्थात् जो व्रत का त्याग कर देवेगे तो लोक में यही कल्पना राग द्वेष का कारण है। जब पर को निज अपवाद होगा। प्रतः कष्ट हो तो भले ही हो, परन्तु मानोगे तब अनुकूल में राग और प्रतिकूल में देष करना अनिच्छा होते हुये भी व्रत को पालना । जब अन्तरंग में स्वाभाविक ही है। प्रतः स्वरूप में लीन रहना उत्तम बात कषाय है बाह्य में प्राचरण भी व्रत के नकल नहीं तब है। अपना उपयोग बाहर भ्रमाया तो फंसे। होली के यह आचरण केवल दम्भ है।
दिन लोग घर में छिपे बैठे रहते है। कहते हैं कि यदि श्री कुन्दकुन्द स्वामी का कहना है कि यदि अन्तरंग
बाहर निकलेगे तो लोग कपड़े रग देगें। इसी प्रकार तप नहीं तब बाह्य वेष केवल दु.ख के लिये है । पर यहाँ
विवेकी मनुष्य सोचता है कि मैं पपने घर में अपने तो बाह्य भी नहीं अन्तरंग भी नही । तब यह वेष केवल
स्वरूप में लीन रहूँगा तो बचा रहूँगा अन्यथा संसार के दुर्गति का कारण है तथा अनन्त ससार का निवारक जो
राग रग में फस जाउगा। सम्यग्दर्शन है उसका भी घातक है । अन्तरंग में तो यह
जग में होगे हो रही, बाहर निकले कूर । विचार प्राता है कि इस मिथ्या वेप को त्यागो, लौकिक
जो घर में बैठा रहे, तो काहे लागे धूर ॥
-मेरी जीवन गाथा प्रतिष्ठा में कोई तत्त्व नहीं परन्तु यह सब कहने मात्र को
२-२८६ है। अन्तरंग में भय है कि लोग क्या कहेंगे? यह विचार समाधि संकल्पनहीं कि अशुभ कर्मका बन्ध होगा। उसका फल तो एकाकी
ध हागा । उसका फल तो एकाकी बाबा जी का जीवन जिस प्रकार एक निश्चित योजना तुमको ही भोगना पड़ेगा । यह भी कल्पना है। परमार्थ का परिणाम था उसी प्रकार उन का मरण भी योजनाबद्ध किया जावे तब आगे क्या होगा सो तो ज्ञानगम्य नही था. और उसके लिये उन्होने खूब तैयारी कर रखी थी । किन्तु इस वेष मे वर्तमान में भी कुछ शान्ति नही। जहाँ उनके मन्त समय प्रत्यक्षदर्शियों ने जिस लोकोत्तर शान्ति शान्ति नही वहाँ सुख काहे का ? केवल लोगो की दृष्टि और स्थिरता का दर्शन उनके हृदय में और पानन पर में मान्यता बनी रहे इतना ही लाभ है।"
किया है, निश्चित ही उमका उपार्जन बाबा जी ने साधना -वर्णी वाणी-३-२६३
पूर्वक किया था। समाधि ग्रहण करने के बहुत पूर्व उन्होंने शान्ति की खोज करने पर भी क्या उसका साक्षात् जो संकल्प किया था वह एक पत्र के रूप में मुझे उनकी करना प्रासान होता है। जब तक कछुए के हाथ परों की पुस्तकों के बीच प्राप्त हुआ था। इस पत्र से सहज ही जाना तरह अपनी वृत्तियों को समेट कर दृष्टि को अन्तमुखी न जा सकता है कि मृत्यु के प्रागमन के पूर्व से ही उसके किया जाय तब तक क्या उस शान्ति की उपलब्धि का स्वागत के लिये वे कितने चैतन्य, कितने सतर्क, पोर मपना भी देखा जा सकता है। इस प्रसग पर उन्होंने कितने मन्नत थे। वह पत्र मेरे संग्रह में सुरक्षित है जा लिखा
इस प्रकार है"लोग शान्ति शान्ति चिल्लाते हैं और मैं भी निरन्तर "यद्यपि हमारा रोग दो वर्ष से हम अनुभव कर है उसी की खोज में रहता हूँ पर उसका पता नहीं चलता। है। यह निष्प्रतिकार है, परन्तु जो साधर्मी भाई हैं, वह परमार्थ से शान्ति तो तब प्रावे जब कषाय का कुछ भी कहते है कि पाप सौ वर्ष जीवेगे। यह उनका कहना उपद्रव न रहे। कषायातुर प्राणी निरन्तर पर निन्दा के तथ्य हो वा प्रतथ्य हो बहज्ञानी जाने या जो कहते है ।