Book Title: Anekant 1965 Book 18 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 250
________________ साहित्य में अंतरित पापनाप भीपुर २२७ सिद्ध स्वरूपी श्रीमहाराजा, नित नित वंदह श्रीजिनराजा। 'श्रीपद, श्रीपाद' ऐसे शब्द है उसी तरह यहां भी है। तथा श्रीपुर स्वामी पाश्र्वजिनेंद्र,नित प्रति पूजत श्रीशत इंद्र ॥२॥ महिपाल श्रीपुर को सिद्ध नगर कहते हैं और प्रभु अन्तअतिशय सुन्दर जय जयशंकर, पूर्ण दयानिधि श्रीअवतारं। रिक्ष होने से सिध स्वरूपी कहा है। भागे है--तीन लोक धन्य विद्याधर पुण्य विराजे,निर्मिल बिंब जगत्रय साजे ॥ को भूषण ऐसा यह बिम्ब विद्याधर के द्वारा निर्मित और यंत्र प्रतिष्ठा सुद्ध सुभावो विद्याधर घणु धणु सुख पायो। मंत्र से प्रतिष्ठित है। यहां यह बिब जल में विराजमान काल अनन्त श्री महाराजा, मसले पुरि एलच राजा॥ करने की कथा नहीं है, लेकिन एलिचपुर के एल राजा ने महिमा मोठा स्वामी नुसारो, दास कहावो प्रभुपद थारो। तोरणद्वार, मंडप रचना तथा सुन्दर देहरा (मन्दिर) सुन्दर देहरो कलश ध्वजाते, सुन्दर शोभा श्री जगमाते॥ बनाया यह बात स्पष्ट है। प्रागे भारति में वे स्पष्ट तोरण द्वारे श्री परसाल,मंडप रचना श्री चित्र शाल। लिखते है कि-ये हमारे देव दिगम्बर है। तथा यह प्रादि। चिन्मयमूर्ति होने से इनका चितवन चिता को दूर करने भारती वाला है। जै जै श्रीपुरमो, श्रीपुरमो, राज रहे जगमो, ११. भ. लक्ष्मीचन्द्र (सं० १५५५-८५)-ये अन्तरिक्ष स्वामी, जुग जुगमो,सो हम जाने घटमो॥ बलात्कारगण सूरत शाखा के भट्टारक मल्लिभूषण के शिष्य जै जै ॥धृ॥ थे। सं० १५७८ के वैशाख सुदी १२ को श्रीपुर में जो पूर्ण प्रताप बड़ो, स्वामीजी, वर्णत अन्त नही जी। पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई, इस समय भट्टारक लक्ष्मीचन्द्र, देव दिगम्बर है हमके जी, अतिशय सुन्दर जगति ॥१॥ श्री सिंहनंदी, श्री श्रुतसागर, ब्रह्म नेमिदत्त, पण्डित जै जै ॥ प्रादि (प्रतिष्ठाचर्य) राघव, ब्रह्म महेद्रदत्त (प्रतिष्ठाकार) स्तवन उपस्थित थे। अतः भ. लक्ष्मीचन्द्र जी ने शायद उसी श्रीपुरा प्रति स्वामी सावले, अन्तरिक्ष श्री स्वामी देखिले। समय रचे हुए अष्टक से पूजन किया होगा । देखोध्यान मी धरूं निन्य अन्तरि, 'मध्ये श्रीपुर पार्श्वनाथ चरणांभोजद्वयायोत्तम, वंदना कर स्वामी मन्दिरी ॥ आदि। श्री भट्टारक मल्लिभूपणगुरो. शिष्येण संवर्णितम् । भारती-जय देव जय देव, जय चिन्तन ते, तोयाचंवर नेमिदत्तयतिना स्वर्णादिपात्रस्थितं, चिता सर्व ही हरली, चिंता जे । मनी ते । भक्तया पण्डितराघवस्य वचमा कर्मक्षयार्थी ददे । चितामणी प्रभुनाम, चिन्मयमूर्ति तू; चिंता चितन । १२. पाश्र्वनाथ स्तवन:-उसी प्रतिष्ठा समय श्री प्रारति चिन्तित दे फल तूं ॥१॥ जयदेवजयदेव ॥..... सिहनंदी के प्रेरणा से श्री श्रुतसागर जी ने इस स्तवन की श्रीपुर नग्न विधान, जय जय वर्तत से । रचना की थी। देवीज्ञान सुकीर्ति स्वामी, प्रभुपद पूजत से ।। 'ज्ञानादिमोहं (दं) परिनष्टमोहं, तत्पदाचा मी दास, स्वामी जानसि तूं। रागादिदोपैः रहितं विदेह । नामे ते महिपाल, नित रंजसि तू ॥४॥ जयदेव ॥ आदि। मुश्रीपुरस्थं सकलनिद्य, श्री पार्श्वनाथं प्रणमामि वद्यम् ॥१॥ भारती-जय स्वामी श्री शिरपुरी, अन्तरिक्ष श्री गया । श्रीविश्वसेनस्य मुनं पवित्र, सुन्दर मंगल प्रारति, स्वामी मिधु तगय, ॥धृ।। भव्यात्मनां भूरि मुगंभवत्रम् । सुधीपुरस्थं० जय जय जय जय, शिरपुर स्वामी, . __शिरपुर पाश्वनाथ म्वामी। १. इतना स्पष्ट होने पर भी, श्वेतांबर भाई इस क्षेत्र के सावले स्वामी, सावले परब्रह्म ती पाहे ॥मादि।। मिर्फ इसी एक ही मूति को श्वेतांबर बताकर झगड़ा जिस तरह विद्यानन्द के श्रीपुर पार्श्वनाथ स्तोत्रमें कर रहे है । अफ़सोस है। जयदष

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